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अनु०५]
शाङ्करभाप्यार्थ
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सार्यन्ते वा इत्यनेन । तिस्र एताः अव्ययसे परामृष्ट व्याहृतियोंका
स्मरण कराया जाता है । अर्थात् प्रसिद्धा व्याहृतयः सायन्ते [ इन शब्दोंसे ] ये तीन प्रसिद्ध तावत् । तासामियं चतुर्थी ।
व्याहृतियाँ स्मरण दिलायी जाती
हैं। उनमें 'महः' यह चौथी व्याहृतिमह इति । तामेतां चतुर्थी व्याहृति है । उस इस चौथी
व्याहृतिको महाचमसका पुत्र माहामहाचमसस्यापत्यं माहाचमस्या चमस्य जानता है । किन्तु 'उ ह प्रवेदयते । उ ह स इत्येतेषां वृत्ता
| स्म' ये तोन निपात अतीत घटना
का अनुकथन करनेके लिये होनेके नुकथनार्थत्वाद्विदितवान्ददर्श- कारण इसका अर्थ 'जानता था'
'देखा था' इस प्रकार होगा । त्यर्थः । माहाचमस्यग्रहणमार्पा
[ व्याहृतिके द्रष्टा ] ऋपिका अनुनुसरणार्थम् । ऋपिसरणमप्यु
स्मरण करनेके लिये 'माहाचमस्य'
यह नाम लिया गया है । इस प्रकार पासनाझमिति गम्यत इहो- यहाँ उपदेश होनेके कारण यह
जाना जाता है कि ऋपिका अनुपदेशात् ।
स्मरण भी उपासनाका एक अङ्ग है।
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व्याट्रतिषु मएसः हतिमह इति तहहा।
येयं माहाचमस्येन दृष्टया व्या-1 जिस 'महः' नामक व्याहृतिको
माहाचमस्यने देखा था वह ब्रह्म है।
ब्रह्म भी महान् है और व्याहृति भी प्राधान्यम् महद्धि ब्रह्म महश्च | महः है । और वह क्या है ? वही व्याहृतिः किं पुनस्तत् ? सआत्मा।
आत्मा है । 'व्याप्ति' अर्थवाले
'आप' धातुसे 'आत्मा' शब्द आमोतेाप्तिकर्मणः आत्मा। निष्पन्न होता है । क्योंकि लोक,