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अनु० ११ ]
शाङ्करभाष्यार्थ
संमर्शिनः । युक्ता आयुक्ताः । अलूक्षा धर्मकामाः स्युः। यथा ते तेषु वर्तेरन् । तथा तेषु वर्तेथाः । एष आदेशः । एष उपदेशः एषा वेदोपनिषत् । एतदनुशासनम् । एवमुपासितव्यम् । एवमु चैतदुपास्यम् ॥ ४ ॥ ___वेदाध्ययन करानेके अनन्तर आचार्य शिष्यको उपदेश देता हैसत्य बोल । धर्मका आचरण कर । खाध्यायसे प्रमाद न कर । आचार्यके लिये अभीष्ट धन लाकर [ उसकी आज्ञासे स्त्रीपरिग्रह कर और ] सन्तानपरम्पराका छेदन न कर । सत्यसे प्रमाद नहीं करना चाहिये । धर्मसे प्रमाद नहीं करना चाहिये । कुशल (आत्मरक्षामें उपयोगी) कर्मसे प्रमाद नहीं करना चाहिये । ऐश्वर्य देनेवाले माङ्गलिक कर्मोसे प्रमाद नहीं करना चाहिये । खाध्याय और प्रवचनसे प्रमाद नहीं करना चाहिये ॥ १ ॥ देवकार्य और पितृकार्योंसे प्रमाद नहीं करना चाहिये । तू मातृदेव ( माता ही जिसका देव है ऐसा ) हो, पितृदेव हो, आचार्यदेव हो और अतिथिदेव हो । जो अनिन्द्य कर्म हैं उन्हींका सेवन करना चाहिये-दूसरोंका नहीं । हमारे ( हम गुरुजनोंके ) जो शुभ आचरण हैं तुझे उन्हींकी उपासना करनी चाहिये ॥२॥ दूसरे प्रकारके कर्मोकी नहीं । जो कोई [आचार्यादि धर्मोसे युक्त होनेके कारण] हमारी अपेक्षा भी श्रेष्ट ब्राह्मण हैं उनका आसनादिके द्वारा तुझे आश्वासन (श्रमापहरण) करना चाहिये। श्रद्धापूर्वक देना चाहिये । अश्रद्धापूर्वक नहीं देना चाहिये। अपने ऐश्वर्यके अनुसार देना चाहिये । लज्नापूर्वक देना चाहिये । भय मानते हुए देना चाहिये । संवित्-मैत्री आदि कार्यके निमित्तसे देना चाहिये । यदि तुझे कर्म या आचारके विपयमें कोई सन्देह उपस्थित हो ॥ ३ ॥ तो वहाँ जो विचारशील, कर्ममें नियुक्त, आयुक्त ( स्वेच्छासे कर्मपरायण), अरूक्ष ( सरलमति ) एवं धर्माभिलापी ब्राह्मण हों, उस प्रसङ्गमें वे जैसा व्यवहार करें वैसा ही तू भी कर । इसी प्रकार जिनपर संशययुक्त दोष आरोपित किये गये हों उनके विषयमें, वहाँ जो विचारशील, कर्ममें