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अनु० १०]
शाकरभाज्यार्थ
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प्रवेशक्रिययोश्चैकश्चेत्कर्ता ततः सृष्टि और प्रवेशक्रियाका एक ही
कर्ता होगा तभी 'क्वा' प्रत्यय होना क्वाप्रत्ययो युक्तः।
युक्त होगा। । प्रविष्टस्य तु भावान्तरापत्ति- पूर्व०-प्रवेश कर लेनेपर उसे
दूसरे भावकी प्राप्ति हो जाती हैरिति चेत् ?
ऐसा माने तो? ना प्रवेशस्यान्यार्थत्वेन सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि प्रवेश
का प्रयोजन दूसरा ही है-ऐसा प्रत्याख्यातत्वात् । “अनेनजीवे
| कहकर हम इसका • पहले ही नात्मना" (छा० उ०६।३।
निराकरण कर चुके हैं ।* यदि
कहो कि "अनेन जीवेन आत्मना" २) इति विशेपश्रुतेधर्मान्तरेणा- इत्यादि विशेष श्रुति होनेके कारण
उसका धर्मान्तररूपसे ही प्रवेश नुप्रवेशइतिचेत् ? न, "तत्वमसि" होता है तो ऐसा कहना ठीक नहीं,
| क्योंकि "वह तू है" इस श्रुतिद्वारा इति पुनस्तद्भावोक्तः । भावा- पुनः उसकी तपताका वर्णन किया न्तरापन्नस्यैव तदपोहार्था संप
गया है। और यदि कहो कि भावान्तर
को प्राप्त हुए ब्रह्मके उस भावका दिति चेत् ? न; "तत्सत्यं स | निषेध करनेके लिये ही वह केवल
दृष्टिमात्र कही गयी है तो ऐसी बात आत्मा तत्त्वमसि" (छा० उ० भी नहीं है, क्योंकि "वह सत्य है, ६१८-१६) इति सामानाधि
वह आत्मा है, वह तू है" इत्यादि
श्रुतिसे उसका परमात्माके साथ करण्यात् ।
| सामानाधिकरण्य सिद्ध होता है। दृष्टं जीवस्य संसारित्वमिति पूर्व-जीवका संसारित्व तो चेत् ?
स्पष्ट देखा है।
* देखिये ब्रह्मानन्दवल्ली अनुवाक ६ का भाष्य ।