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तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली १
कर्मोपन्यासादनन्तरं च वेदानु-च' इत्यादि अनुवाकमें धर्मका वचनपाठादेतदवगम्यत एवं
उपन्यास ( उल्लेख) करनेके
अनन्तर वेदानुवचनका पाठ करनेसे श्रौतस्मातेषु नित्येषु कर्मसु । यह जाना जाता है कि इस प्रकार युक्तस्य निष्कामस्य परं ब्रह्म श्रौत और स्मार्त नित्यकोंमें लगे
'हुए परब्रह्मके निप्काम जिज्ञासुके प्रति नावादपाराषाणि दशनानिमा आत्मा आदिसे सम्बन्धित आर्पदर्शनोंदुर्भवन्त्यात्मादिविषयाणीति ।। का प्रादुर्भाव हुआ करता है ॥ १॥
इति शीक्षावल्ल्यां दशमोऽनुवाकः ॥१०॥
एकादश अनुवाक वेदाध्ययनके अनन्तर शिष्यको आचार्यका उपदेश वेदमनूच्येत्येवमादिकर्तव्य- । ब्रह्मात्मैक्यविज्ञानसे पूर्व श्रौत प्राग्नविंशानात् तोपदेशारम्भः प्रा- और स्मार्तकर्मोका नियमसे अनुष्ठान कर्मविधिः ब्रह्मविज्ञानानिय
करना चाहिये-इसीलिये 'वेदम
। नूच्य' इत्यादि श्रुतिसे उनकी मेन कर्तव्यानि श्रौतसात- कर्तव्यताके उपदेशका आरम्भ किया कर्माणीत्येवमर्थः। अनुशासनश्रुतेः जाता है, क्योंकि [ 'अनुशास्ति' पुरुषसंस्कारार्थत्वात् । संस्कृतस्य |
| ऐसी] जो अनुशासन-श्रुति है वह
पुरुषके संस्कारके लिये है, क्योंकि जो हि विशुद्धसत्त्वस्यात्मज्ञानमञ्ज- पुरुप संस्कारयुक्त और विशुद्धचित्त सैवोत्पद्यते । "तपसा कल्मपं होता है उसे अनायास ही आत्मज्ञान हन्ति विद्ययामृतमश्नुते" (मनु० प्राप्त हो जाता है । इस सम्बन्धमें १२। १०४) इति स्मृतिः। बानसे अमरत्व लाभ करता है" ऐसी
"तपसे पापका नाश करता है और वक्ष्यति च-"तपसा ब्रह्म विजि- स्मृति है। आगे ऐसा कहेंगे भी कि