________________
१६८
तैत्तिरीयोपनिपद्
[वल्ली २
मेव हि भयकारणमल्पमपि भेदं भेददर्शन ही भयका कारण है, अतः पश्यतीत्यर्थः। अथ तसाझेददर्श- तात्पर्य यह है कि यदि यह थोड़ा-सा
भी भेद देखता है तो उस आरमाके नाद्धेतोरस्य भेददर्शिन आत्मनो
" भेददर्शनरूप कारणसे उसे भय होता भयं भवति । तसादात्मैवात्मनो है । अतः अज्ञानीके लिये आत्मा ही भयकारणमविदुपः। आत्माके भयका कारण है। तदेतदाह । तद्ब्रह्म त्वेव भयं. यहाँ श्रुति इसी वातको कहती
. . है-भेददर्शी विद्वानके लिये वह ब्रह्म भेददर्शिनो चिदुप ईश्वरोऽन्यो
दुष इश्वराऽन्या ही भयरूप है । मुझसे भिन्न ईश्वर मत्तोऽहमन्यः संसारी इत्येवं और है तथा मैं संसारी जीव और
हूँ इस प्रकार उसमें थोड़ा-सा भी विदुषो भेददृष्टमीश्वराख्यं तदेव अन्तर करनेवाले उसे एकरूपसे
न माननेवाले विद्वान् (भेदज्ञानी) ब्रह्माल्पमप्यन्तरं कुर्वतो भयं के लिये वह भेदरूपसे देखा गया भवत्येकत्वेनामन्यानस्य । तसा
ईश्वरसंज्ञक ब्रह्म ही भयरूप हो
जाता है। अतः जो पुरुप एक द्विद्वानप्यविद्वानेवासौ योऽयमे- अभिन्न आत्मतत्त्वको नहीं देखता कमभिन्नमात्मतत्त्वं न पश्यति । ही है।
वह विद्वान् होनेपर भी अविद्वान् • उच्छेदहेतुदर्शनाद्धयुच्छेद्या- अपनेको उच्छेद्य ( नाशवान् )
माननेवालेको ही उच्छेदका कारण भिमतस्य भयं भवति । अनु- देखनेसे भय हुआ करता है ।
| उच्छेदका कारण तो अनुच्छेद्य च्छेयो धुच्छेदहेतुस्तनासत्युच्छेद- ( अविनाशी ) ही होता है । अतः
| यदि कोई उच्छेदका कारण न होता हेतावुच्छेद्य न तदर्शनकार्य भयं तो उच्छेद्य पदार्थोंमें उसके देखनेसे