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तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली २
किं ततः ?
। पूर्व ०-इस विचारसे लाभ
क्या है ? यद्यन्यः स्याञ्छृतिविरोधः ।' सिद्धान्ती-यदि वह उससे भिन्न "तत्सृष्ट्वा तदेवानुनाविशत" है तो “उसे रचकर उसी अनुप्रविष्ट (तै० उ०२।६।१)"अ- हो गया" "यह अन्य है और मैं न्योऽसावन्योऽहमस्मीति । न सक
अन्य है-इस प्रकार जो कहता है
वह नहीं जानता" "एक ही वेद" (वृ० उ० १ । ४।१०)
अद्वितीय" "तु वह है" इत्यादि "एकमेवाद्वितीयस्" (छा० उ०1.
श्रुतियोंसे विरोध होगा। और यदि ६।२ । १) "तत्वमसि' वह स्वयं हो आनन्दमय आत्माको (छा० उ०६१८-१६) इति। प्राप्त होता है तो उस [ एक ही ] अथ स एव, आनन्दमयमात्मानम में कर्म और कर्तापन दोनोंका होना पसंक्रामतीति कर्मकर्तृत्वानुप- ' असम्भव है, तथा परमात्माको ही पत्तिः, परस्यैव च संसारित्वं संसारित्वकी प्राप्ति अथवा उसके पराभावो वा।
परमात्मत्यका अभाव सिद्ध होता है। यधुभयथा प्राप्तो दोपो न पूर्व०-यदि दोनों ही अवस्थाओं
| में प्राप्त होनेवाले दोपका परिहार पारहत शक्यत इति व्यथा नहीं किया जा सकता तो उसका चिन्ता । अथान्यतरसिपक्षे विचार करना व्यर्थ है और यदि
| किसी एक पक्षको स्वीकार कर लेनेसे दोपाप्राप्तिस्तृतीये वा पक्षेऽदष्टे दोपकी प्राप्ति नहीं होती अथवा
कोई तीसरा निर्दोष पक्ष हो तो उसे स एव शास्त्रार्थ इति व्यथैव ही शास्त्रका आशय समझना चाहिये। चिन्ता।
| ऐसो अवस्थामें भी विचार करना
| व्यर्थ ही होगा। न तनिर्धारणार्थत्वात् । सत्यं सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि यह
. उसका निश्चय करनेके लिये है।