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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली १
I
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जो वेदोंमें ऋभ ( श्रेष्ठ अथवा प्रधान ) और सर्वरूप है तथा वेदरूप अमृतसे प्रधानरूपसे आविर्भूत हुआ हैं वह [ ओंकाररूप ] इन्द्र ( सम्पूर्ण कामनाओंका ईश ) मुझे मेधासे प्रसन्न अथवा बलयुक्त करे । हे देव ! मैं अमृतत्व ( अमृतत्वके हेतुभूत ब्रह्मज्ञान ) का धारण करनेवाला होऊँ । मेरा शरीर विचक्षण (योग्य) हो । मेरी जिल्हा अत्यन्त मधुमती ( मधुर भाषण करनेवाली ) हो । मैं कानोंसे खूब श्रवण करूँ | [ हे ओंकार ! ] तू, ब्रह्मका कोप है और लौकिक बुद्धिसे ढँका हुआ है [ अर्थात् लौकिक बुद्धिके कारण तेरा ज्ञान नहीं होता ] । तू मेरी श्रवण की हुई विद्याकी रक्षा कर । मेरे लिये चल, गौ और अन्न-पानको सर्वदा शीघ्र ही लें आनेवाली और इनका विस्तार करनेवाली श्रीको [ भेड़-बकरी आदि ] ऊनवाले तथा अन्य पशुओंके सहित बुद्धि प्राप्त करानेके अनन्तर तू मेरे पास ला -- खाहा । ब्रह्मचारीलोग मेरे पास आवें - खाहा । ब्रह्मचारीलांग मेरे प्रति निष्कपट हों-खाहा । ब्रह्मचारीलोग प्रमा ( यथार्थ ज्ञान ) को धारण करें - खाहा । ब्रह्मचारीलोग दम ( इन्द्रियदमन ) करें - खाहा । ब्रह्मचारीलोग शम ( मनोनिग्रह ) करें - खाहा । [ इन मन्त्रोंके पीछे जो 'स्वाहा' शब्द है वह इस बातको सूचित करता है कि ये हवनके लिये हैं ] ॥ १-२ ॥
यच्छन्दसां
वेदानामृपभ
ओङ्कारतो बुद्धि- इवर्षभः प्राधान्यात् । बलं प्रार्थ्यते विश्वरूपः सर्वरूपः
सर्ववाग्व्याप्तेः । " तद्यथा श -
कुना" ( छा० उ० २ | २३ |
३ )
जो [ ओंकार ] प्रधान होनेके कारण छन्द - वेदों में श्रेष्टके समान श्रेष्ठ तथा सम्पूर्ण वाणीमें व्याप्त होनेके कारण विश्वरूप यानी सर्वमय है; जैसा कि "जिस प्रकार शङ्कुओं ( पत्तोंकी नसों ) से [ सम्पूर्ण पत्ते सम्पूर्ण वाणी व्याप्त है-ओंकार ही व्याप्त रहते हैं उसी प्रकार ओंकारसे
यह सब कुछ है ] " इस एक अन्य
इत्यादि श्रुत्यन्तरात् । अत एव - | श्रुतिसे सिद्ध होता है । इसीलिये