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शाङ्करभाष्यार्थ
अनु० ७ ]
देशोऽन्नस्तुतये, स्तुतिभाक्त्वं अन्नकी स्तुतिके लिये है और अन्नकी स्तुतिपात्रता ब्रह्मोपलब्धिका साधन होनेके कारण है ।
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चान्नस्य ब्रह्मोपलब्ध्युपायत्वात् । प्राणो वा अन्नम्, शरीरान्तर्भावात्प्राणस्य । यद्यस्यान्तःप्रतिष्ठितं भवति तत्तस्यान्नं भवतीति । शरीरे च प्राणः प्रतिष्ठितस्तस्मात्प्राणोऽन्नं शरीरमन्ना - दम् । तथा शरीरमप्यन्नं प्राणो - अन्नादः । कस्मात् ? प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम् ; तन्निमित्तत्वाच्छरी स्थिति प्राणके ही कारण है। अतः रस्थितेः । तस्मात्तदेतदुभयं शरीरं | ये दोनों शरीर और प्राण अन्न और प्राणश्चान्नमन्नादश्च । येनान्योन्य- | अन्नाद हैं। क्योंकि वे एक दूसरेमें स्मिन्प्रतिष्ठितं तेनान्नम्। येना- स्थित हैं इसलिये अन्न हैं और क्योंकि एक दूसरे के आधार हैं इसलिये अन्नाद हैं । अतएव प्राण और शरीर दोनों ही अन्न और अन्नाद हैं ।
प्राण ही अन्न है, क्योंकि प्राण शरीर के भीतर रहनेवाला है । जो जिसके भीतर स्थित रहता है वह उसका अन्न हुआ करता है । प्राण शरीरमें स्थित है, इसलिये प्राण अन्न है और शरीर अन्नाद है । इसी प्रकार शरीर भी अन्न है और प्राण अन्नाद है; कैसे ? - प्राण में शरीर स्थित है, क्योंकि शरीरकी
न्योन्यस्य प्रतिष्ठा तेनान्नादः । तस्मात्प्राणः शरीरं चोभयमन्न - मन्नादं च । स य एवमेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठत्यन्नान्नादा- | स्थित जानता है, अन्न और अन्नादरूपसे ही स्थित होता है तथा अन्नत्मनैव । किं चान्नवानन्नादो भव- । वान् और अन्नाद होता है - इत्यादि तीत्यादि पूर्ववत् ॥१॥ शेप अर्थ पूर्ववत् है ॥ १ ॥
वह जो इस प्रकार अन्नको अन्नमें
इति भृगुवल्ल्यां सप्तमोऽनुवाकः ॥ ७ ॥