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तैत्तिरीयोपनिपद्
[ वल्ली १
ध्यात्मम् । इतीमा महास हिताः य एवमेता महासहिता व्याख्याता वेद । संधीयते प्रजया पशुभिः । ब्रह्मवर्चसे
नान्नाद्येन सुवर्गेण लोकेन ॥४॥ ___हम [ शिष्य और आचार्य ] दोनोंको साथ-साथ यश प्राप्त हो
और हमें साथ-साथ ब्रह्मतेजकी प्राप्ति हो। [क्योंकि जिन पुरुपोंकी बुद्धि शास्त्राध्ययनद्वारा परिमार्जित हो गयी है वे भी परमार्थतत्त्वको समझनेमें सहसा समर्थ नहीं होते, इसलिये ] अब हम पाँच अधिकरणोंमें संहिताकी * उपनिषद् [ अर्थात् संहितासम्बन्धिनी उपासना की व्याख्या करेंगे । अधिलोक, अधिज्यौतिप, अधिविद्य, अधिप्रज और अध्यात्म –ये ही पाँच अधिकरण हैं । पण्डितजन उन्हें महासंहिता कहकर पुकारते हैं । अब अधिलोक (लोकसम्बन्धी) दर्शन (उपासना) का वर्णन किया जाता है-संहिताका प्रथम वर्ण पृथिवी है, अन्तिम वर्ण धुलोक है, मध्यभाग आकाश है ॥ १ ॥ और वायु सन्धान ( उनका परस्पर सम्बन्ध करनेवाला ) है । [अधिलोकउपासकको संहितामें इस प्रकार दृष्टि करनी चाहिये ]यह अघिलोक दर्शन कहा गया । इसके अनन्तर अधिज्यौतिप दर्शन कहा जाता है-यहाँ संहिताका प्रथम वर्ण अग्नि है, अन्तिम वर्ण चुलोक है, मध्यभाग आप ( जल ) है और विद्युत् सन्धान है [ अधिज्यौतिपउपासकको संहितामें ऐसी दृष्टि करनी चाहिये ]-यह अधिज्यौतिप दर्शन कहा गया । इसके पश्चात् अधिविद्य दर्शन कहा जाता है इसकी संहिताका प्रथम वर्ण आचार्य ; है ॥ २ ॥ अन्तिम वर्ण शिष्य है, विद्या सन्धि है और प्रवचन (प्रश्नोत्तररूपसे निरूपण करना) सन्धान है [-ऐसी अधिविद्यउपासकको दृष्टि
___ * 'संहिता' शब्दका अर्थ सन्धि या वर्णीका सामीप्य है। भिन्न-भिन्न वों के मिलनेपर ही शब्द बनते हैं। उनमें जब एक वर्णका दूसरे वर्णसे योग होता है तो उन पूर्वोत्तर वर्णोके योगको 'सन्धि' कहते हैं और जिस शब्दोच्चारणसम्बन्धी प्रयत्नके योगसे सन्धि होती है उसे 'सन्धान' कहा जाता है।