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तैत्तिरीयोपनिषद्
[बल्ली २
स हि पुरुप इह विद्ययान्तर- उस पुरुषको ही यहाँ ( इन
बल्लीमें ) विद्याके द्वारा सबकी अपेक्षा तमं ब्रह्म संक्रामयितुमिष्टः। तस्य अन्तरतम ब्रह्मके पास ले जाना
अभीष्ट है । किन्तु उसकी बुद्धि, च बाह्याकारविशेपेवनात्मस्सा- जो बायाकार विशेषरूप अनात्म त्मभाषिता वृद्धिस्नालम्च्य विशेपं पदार्थोमं आत्मभावना किये हुए है,
किसी विशेष आलम्बनके बिना कंचित्सहसान्तरतमप्रत्यगात्म- एकाएक सबसे अन्तरतम प्रत्य
गात्मसम्बन्धिनी तथा निरालम्बना विपया निरालम्बना च कतु- की जानी असम्भव है; अतः इस
दिखलायी देनेवाले शरीरल्पआत्मामशक्येति दृष्टशरीरात्मसामान्य
की समानताकी कल्पनासे शाखाकल्पनया शाखाचन्द्रनिदर्शन-, चन्द्र दृष्टान्तके समान उसका
। भीतरकी ओर प्रवेश कराकर श्रुति वदन्तः प्रवेशयन्नाह- कहती हैतस्येदमेव शिरः। तसास्स उसका यह [शिर] ही शिर है।
उस इस अन्नरसमय पुरुपका यह पक्ष्यात्मनान्न- पुरुषस्यान्नरसमय- प्रसिद्ध शिर ही [शिर हैं ] । मयस्य निरूपणन् स्वेदमेव शिरः [अगले अनुवाक में ] प्राणमय आदि
शिररहित कोशोंमें भी शिरस्त्व देखा प्रसिद्धम् । प्राणमयादिष्वशिरसां जानेके कारण यहाँ भी वही बात
न समझीजाय [ अर्थात् इस अन्नमय शिरस्त्वदर्शनादिहापि तत्प्रसङ्गो कोशको भी वस्तुतः शिररहित न
समझा जाय ] इसलिये 'यह प्रसिद्ध मा भूदितीदमेव शिर इत्युच्यते। शिर ही उसका शिर है-ऐसा कह।
जाता है । इसी प्रकार पक्षादिवे एवं पक्षादिषु योजना । अयं विषयमें लगा लेना चाहिये। पूर्वाभि