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अनु० ११ ]
सत्यत्वं चैकत्वस्य " एकधैवानुद्रष्टव्यम्" ( वृ० उ० ४। ४ । २० ) " एकमेवाद्वितीयम्" ( छा० उ०६ । २ । १ ) " त्रह्मे वेद सर्वम्” (मु० उ० २।२। “आत्मैवेद सर्वम्”
तथा " एक रूपसे ही देखना चाहिये” “एक ही अद्वितीय" "यह सव ब्रह्म ही है" "यह सब आत्मा ही है" इत्यादि श्रुतियोंसे एकत्वकी सत्यता सिद्ध होती है । सम्प्रदान आदि कारकमेदके दिखाय न देने
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( छा० उ० ७ | २५ | २ ) पर कर्म होना सम्भव भी नहीं है । इत्यादिश्रुतिभ्यः । न च संप्रदा- ज्ञानके प्रसङ्गमें भेददृष्टि के अपवाद नादिकारकभेदादर्शने कर्मोप - | तो सहस्रों सुननेमें आते हैं । अतः पद्यते । अन्यत्वदर्शनापवादश्च विद्या और कर्मका विरोध है; इसविद्याविपये सहस्रशः श्रूयते । लिये भी उनका समुच्चय होना अतो विरोधो विद्याकर्मणोः । असम्भव है । ऐसी दशामें पूर्वमें अतश्च समुच्चयानुपपत्तिः । तत्र तुमने जो कहा था कि 'परस्पर यदुक्तं संहताभ्यां विद्याकर्मभ्यां मिले हुए विद्या और कर्म दोनोंसे मोक्ष इति, अनुपपन्नं तत् । मोक्ष होता है' वह सिद्ध नहीं होता । विहितत्वात्कर्मणां श्रुतिवि
शाङ्करभाष्यार्थ
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पूर्व ० - कर्म भी श्रुतिविहित हैं, अतः ऐसा माननेपर श्रुतिसे विरोध रोध इति चेत् । यद्युपमृद्य कर्त्रा उपस्थित होता है । यदि सर्पादिभ्रान्तिजनित ज्ञानका वाघ करनेवाले
दिकारकविशेपमात्मैकत्वविज्ञानं रज्जु आदि विषयक ज्ञानके समान कर्ता आदि कारकविशेपका वाध करके ही आत्मैकत्वके ज्ञानका विधान किया जाता है तो कोई कारण कर्मका
विधीयते सर्पादिभ्रान्तिविज्ञानो -
पमर्द करज्ज्वादिविषय विज्ञानव- विपय न रहनेके
त्प्राप्तः कर्मविधिश्रुतीनां निर्विष । विधान करनेवाली श्रुतियोंका उन