Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 04
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृतागसूत्रे मंता' गन्धवन्ति-विलक्षणगन्धसमवेतानि । 'रसमंता' रसन्ति-विलक्षण मधुपरा गयुक्तानि 'फाममंता' स्पर्शवन्ति-मृदुम्पर्शवन्ति 'पासाईया' प्रासादिकानि-आहा. दकारीणि 'दरिसणिज्जा' दर्शनीयानि-द्रष्टुं योग्यानि 'अभिरूपाणि-सुजातरूपवन्ति, पडिरूवा' प्रतिरूपाणि-अनन्यसाधारणानि, 'तीसे गं पुकखरिणीए' तस्याः खल्ल पुक्खरिया: 'बहुमज्झ देसभाए' बहुपपदेश मागे-मध्यप्रदेशे, 'एगे महं पउमवरपोडरिए बुरए' एकं महत् पद्मवरपुण्डरीकं कमलमुक्तम् , एकं विल क्षणं सर्वसुजातकमलेभ्यः श्रेष्ठ कमलं तस्या मध्य मागे विद्यते । 'अणुपुव्वुहिए' आनुपूळ उत्थितं तत् श्वेत कमलं विलक्षणरचनया युक्तम् , पड्कादृवंगतम् , 'उस्सिए' उच्छ्रितम्-अत्यूवस्थितम् 'रुइले' रुचिरम्- सुन्दरम् 'वण्णवंते' वर्णवत् 'गंधमंते' गन्धवत्-सुरमिगन्धयुक्तम् 'रसमंते' रसवत्-सुस्वादुरसयुक्तम् ‘फासमंते' विलक्षणस्पर्शयत् । 'पासाईए' प्रासादिकम्-प्रसादगुणोपेतम् , 'जाव पडिरूवे' यावत् प्रतिरूपम्-दर्शनीयमभिरूपं पतिरूपम् 'सन्यावंति च ण तीसे' सर्वस्या अपि खलु तस्याः 'पुक खरिणीए' पुष्करिण्याः 'तत्थ तत्थ देसे देसे' तत्र तत्र देशे देशे-प्रत्येकादेशे, 'तहि तर्हि तस्मिन् तस्मिन् 'वह वे बहूनि 'पउमवरपौडरिया चुइया' पद्मवरपुण्डरीकाणि उक्तानि-बहु नि कमलानि सन्ति, 'अणुपुव्वुट्ठिया' आनुपूा उस्थितानि 'उसिया' उच्छ्रितानि पकाद्ध्यै गनानि 'सहला' रुचिराणि 'जाव पडिरूपा' यावत्यतिरूपाणि-पूर्वोक्त सर्वगुणसम्पन्नानि 'सव्याचंति च णं नीसे पुकावरिणीए' सर्वस्या अपि खलु तस्याः पुष्करिण्याः 'बहु मझदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे 'एग महं पउमबरपोंडरीयं त्रुइयं एकं महत् पद्ममनोज्ञ गंध वाला, सुस्वादु रमवाला और मनोहर पवाला है। वह दर्शक के चित्त को प्रसन्नता जदान करनेवाला यावत् प्रतिरूप है अर्थात् दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है । उस सम्पूर्ण पुष्करिणी में बहुत से पद्मवर पुण्डरीक कहे गये हैं। वे अनुक्रम से ऊँचे उटे हुए, कीचड़ से ऊपर निकले हुए मचिर यावत् प्रतिरूप हैं । अर्थात् पूर्वोक्त सब गुणों આનંદ આપનાર ગંધવાળું, સ રા સ્વાદ યુક્ત રસવાળુ, અને મને હર સ્પર્શ વાળું હોય છે. તે જોનારના ચિત્તને પ્રસન્નતા આપનાર યાવત્ પ્રતિરૂપ છે. અર્થાત્ દર્શની, અભિરૂપ અને પ્રતિરૂપ છે. તે સંપૂર્ણ પુષ્કરિણીમાં ઘણું કમળ-પદ્મવરપુંડરીકો આવેલા છે તે અનુક્રમથી ઉચા ઉઠેલા કાદવધી ઉપર નીકળવા મનને ગમનાર રૂચિર યાવત્ પ્રતિરૂપ છે, અર્થાત્ પર્વોક્ત સઘળા ગુણોથી યુક્ત હોય છે, તે પુષ્કરિણ–વાવની વચ્ચે વચ્ચે એક
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