________________ 805 नैषधमहाकाव्यम् / अतएव इसे ही वरण करो / अथवा-यदि..."छोड़ोगी तो तुम्हारा कौन वर ( पति या श्रेष्ठ, या अभीष्ट ) होगा अर्थात् कोई नहीं ( अपितु वह ) पर ( शत्रु ) ही होगा। अथवायदि.....'छोड़ोगी तो तुम्हारा कतर ( 'क' अर्थात् वायु से बढ़नेवाला या 'क' अर्थात् जलसे शान्त होने ( बुझने-नष्ट होने ) वाला ( इन्द्र के बादमें स्थित अग्नि ) पति होगा। [ अथवाइसमे इन्द्र के त्याग करने का भी संकेत सरस्वती देवी कर रही है, यथा-] यह भूलोकका पति ( रक्षक ) राजा नल नहीं है, यह तुम क्या निर्णय नहीं करती ? अर्थात् निर्णय करती ही हो ( और अत एव ) नहीं वरण करती ( नलानुरक्त होकर नलभिन्न इन्द्र का वरण नहीं करना तुम्हें उचित ही है ) / ( अथवा-इन्द्र ही है पति जिसका ऐसी इन्द्राणीका यह पति देव ( इन्द्र ) है यह निश्चय नहीं करती हो ऐसा नहीं है अर्थात् इसे इन्द्राणीपति देव इन्द्र तुम जानती ही हो ( अत एव ) नहीं वरण करती हो क्या ? ( यह अच्छा ही करती हो ) / सन्देह निवृत्तिके लिये सरस्वती देवी उसी निषेधपक्षको और भी आगे पुष्ट करती हुई कहती है-) यह तुम्हारा ( तुम्हारे चित्तमें स्थित ) अतिमहान् ( अतिशय तेजस्वी ) नल नहीं है ( अत एव तुमने इसका त्याग कर दिया तो ठीक ही किया) किन्तु नलाभ ( नलतुल्य आभासित होता) है अर्थात् कपट द्वारा इसने नलरूप धारण किया है / ( अथवा--यह नलाभ ( 'नल' नामक तृणके समान निस्सार है ) ( अत एव तुम इसे छोड़ती हो तो पर अर्थात् श्रेष्ठ कतर 'क' ( सुख ) में तैरनेवाला) अर्थात् सुखसमुद्र नल वर (पति) होगा। नैषधराज ( नल ) ही गति ( शरण) जिसका ऐसी आप इसे देव ( इन्द्र) नहीं निश्चित करती हो क्या ? अर्थात् निश्चित कर ही लिया है (क्योंकि ) इसे पति नहीं स्वीकार करती हो तथा यह अतिमहा ( दैत्यों से उल्लवित तेजवाला नि:स्सार ) है ( अत एव तुम इसे वरण करोगी तो ) तुम्हें लाभ नहीं होगा ( अथवा-तुम्हारा बड़ा अलाभ (हानि) होगा / ( अथवा-पदि तुम इसका त्याग करती हो तो तुम्हें बड़ा लाभ नहीं होगा ? अर्थात् अवश्य होगा ) / अग्निपक्षमें-हे पण्डिते ( दमयन्ति ) ! वाहन बकरेसे ( अथवा-पर्वततुल्य (विंशालकाय ) बकरेसे, अथवा-पृथ्वीपर बकरेसे ) चलनेवाला, ( पाकादिके द्वारा त्रैलोक्यका ) रक्षक तथा देव ( प्रकाशमान् , या देवता ) इसको नहों निश्चित करती ( पहचानती) हो ऐसा नहीं है अर्थात् निश्चित करती ही हो ( किन्तु निश्चित करके भी) इसे क्यों नहीं वरण करती हो अर्थात् इसे वरण करना चाहिये। ( अथवा--वाहन (अजवाहन)वाला ( अग्नि ) है गति (शरण, या रक्षक ) जिसका ऐसी अग्निकोण रूप दिशाका यह देव (देवता, या अग्नि है) यह निर्णय नहीं करतो ? ( और यदि निर्णय कर लिया है तो ) क्यों नहीं वरण करती ? अर्थात् वरण करना चाहिये / [ यदि यह अग्नि है तो नलतुल्य क्यों है ? इसका समाधान सरस्वती कर रही है ] निश्चित ही यह नल नहीं है, (किन्तु) अतितेजस्वी नलतुल्य शोभता है ( अथवा-निश्चित ही यह नल नहीं है किन्तु अतितेजस्वी तथा तुम्हारे नलके