Book Title: Naishadh Mahakavyam Uttararddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 841
________________ 1538 नैषधमहाकाव्यम् / अथ च-दर्पणवद्दृश्यत्वं श्रितोऽप्यादर्श दर्शमभिव्याप्य दृश्याममावास्यायां दर्शनयोग्यां मूर्ति न बिभर्ति / इदानीं पूर्णस्वेन दृश्यमानोऽपि दर्श लेशेनापि न दृश्यते इत्यर्थ इति विरोधपरिहारः / दर्पणवदृश्यत्वं श्रितोऽपि आदर्श दर्श मर्यादी. कृस्य कृष्णचतुर्दशीमभिव्याप्य दृश्यां मूर्ति न बिभर्ति, अपि तु तावत्पर्यन्तं दृश्यो भवस्येवेति वा / तथा-अयं चन्द्रस्त्रिनेत्राद्भवति ताहशस्त्रिनेत्रादुत्पन्नोऽपि न त्रिने ब्रोऽत्रिनेत्रः / तस्मारित्रनेत्रव्यतिरिक्तात्सकाशादुत्पादमुत्पत्तिमासादयति स्म प्रापेत्ये तदपि चित्रम् / त्रिनेत्रादुरपन्नोपि त्रिनेत्रादुत्पनो न भवतीत्याश्चर्यमित्यर्थः / अथ च-त्रिनेत्रादुत्पन्नोऽप्यत्रेनेंत्रादुत्पत्तिमापेत्येतदपि विरुद्धम् / अथ च-त्रिनेत्रो भूर्वसतिस्थानं यस्य तादृशः, तथा-अत्रेमुनेत्राच्चित्रमाश्चर्यरूपमुत्पादं प्रापेति विरोधपरिहारः / सहजसौन्दर्यमाश्रयमाहाल्यं कुलस्य माहात्म्यं चानेन चन्द्रस्य वर्णितम् / चन्द्रस्यात्रिनेत्रसमुद्भुतत्वं पुराणप्रसिद्धम् // 73 // ___ यह चन्द्रमा आदर्श ( दर्पण ) के समान ( स्वच्छ एवं वृत्ताकार होनेसे दर्शनीयताको प्राप्त होता हुआ भी आदर्श में (या-आदर्शतुल्य ) दर्शनीय मूर्तिको नहीं धारण करता है, यह आश्चर्य है ( जो आदर्शवत् दृश्य है, उसका आदर्शवत् दृश्य मूर्तिको नहीं धारण करना विरोध है, उसका परिहार यह है कि-आदर्श ( दर्पण ) के समान दर्शनीय मूर्तिको धारण करता हुआ मी यह चन्द्रमा अमावस्यातक दर्शनीय ( देखने योग्य ) मूर्तिको नहीं धारण करता अर्थात् अमावस्याको इसकी मूर्ति नहीं दिखलायी पड़ती, तथा त्रिनेत्र (तीन नेत्रों वाले ) से उत्पन्न भी यह चन्द्रमा अत्रिनेत्रसे उत्पत्तिको पाता है (बिना तीन नेत्रोंवालेसे उत्पन्न होता है; अथच-त्रिनेत्र (शिव ) जी से उत्पन्न होता हुआ भी अत्रिमुनि ( शिवभिन्न ) के नेत्रसे उत्पन्न होता है, यह आश्चर्य है। इस विरोधका भी परिहार यह है कित्रिनेत्र (शिवजी ) हैं भू = निवासस्थान जिसके ऐसा चन्द्रमा भो अत्रि मुनिके नेत्रले उत्पन्न होता है ) / [चन्द्रमाको अत्रिनुनिके नेत्रसे उत्पन्न होना कविश्रेष्ठ कालिदासने भी रघुवंशके द्वितीय सर्गमें कहा है ] / / 73 / / इज्येव देवत्रजभोज्यऋद्धिः शुद्धा सुधादीधितिमण्डलीयम् / हिंसा यथा सैव तथाऽङ्गमेषा कलङ्कमेकं मलिनं बिभर्ति / / 74 / / इज्येति / देवानां व्रजैः समूहैर्भोज्या पेया ऋद्धिः समृद्धिर्यस्याः सा शुद्धा धवला इयं सुधादीधितेरमृतकरस्य चन्द्रस्य मण्डली इज्येव याग इव, शोभत इति शेषः / इज्यापि देवव्रजभोज्यपुरोडाशादिसमृद्धिः शुद्धा पवित्रा च भवति / नथैषा चन्द्रमण्डली कलङ्काख्यमेकं मध्यवर्तिनमङ्गमवयवं मलिनाकारं तथा बिभर्ति, यथा सैव इज्यैव पूर्वोक्तगुणविशिष्टा सत्यप्येकं पशुहिंसात्मकमङ्गं कर्मसाधनं मलिनं पापहेतुं 1. तद्यथा-'अथ नयनसमुत्थं ज्योतिरत्रेरिव द्यौः......'( रघु० 275) अत्र अत्रिमुनिनेत्रोत्पन्नं ज्योतिश्चन्द्र एवं गृह्यत इति बोध्यम् /

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