Book Title: Naishadh Mahakavyam Uttararddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 855
________________ 1552 नैषधमहाकाव्यम् / शोभमानः किं नास्ति ? अपि स्वस्मदादिनेत्रेऽपीन्दुर्वर्तत एव; परम्-अणुकोऽल्पी यान् , तथा क्षणिक क्षणमात्रावस्थायी, यावञ्चिपिटीकरणमेव दृश्यत इत्यर्थः / तह्यस्माच्चन्द्रात्तस्य लक्षण्यं कथमत आह-अत्रेमुनेनैत्रे तु पुनस्तेजोमयबिन्दुरयमिन्दुः महीयानितरापेक्षया नितरां महापरिमाण आसीत् / तथा मासेन कृत्वा नाशी प्राप्त विनाशश्चाभूदिति यत् , तद्धटते, एतद्यज्यत इत्यर्थः / यतः कीदृशस्यात्रेः ? महतो महानुभावस्य / 'सर्व हि महतां महत्' इति न्यायेन महतोऽत्रेस्तेजोमयबिन्दुरप्य. यमिन्दुमहापरिमाणश्चिरकालस्थायी चेत्यस्मन्नेत्रवर्तितेजोमयबिन्दोरिन्दोवलक्षण्यं युक्तमेवेति भावः / अणुकः, 'अल्पे' इति कन् / नाशीति, अस्त्यर्थे इनिः // 28 // ____ अतिशय लघु हमलोगोंके भी नेत्रमें क्षणमात्र ( जबतक अङ्गुल्यग्र भागले नेत्रको दबाते हैं तभी तक ) रहनेवाला छोटा सा तेजोमय-बिन्दुरूप शोभता हुआ चन्द्रमा नहीं है क्या ? अर्थात् अवश्य है, किन्तु महानुभाव अत्रिमुनिके नेत्र में एक मासतक ( प्रत्येक अमावास्याको) नष्ट होने वाला तथा अत्यधिक बड़ा जो चन्द्रमा था, वह घटित होता है। [ 'सर्वं हि महतां महत्'-'बड़ोंका सब कुछ बड़ा ही होता है' इस नीति के अनुसार, अत्रिमुनिके नेत्रमें एक मासतक रहनेवाला विशालतम चन्द्र था और लघुतम हमलोगोंके नेत्रमें क्षणस्थायी तेजो. बिन्दुरूप लघुतम चन्द्र है-जो अङ्गुलिके अग्रभागसे नेत्रको दबानेपर दिखलायी पड़ता है ] // 98 // त्रातुं पतिं नौषधयः स्वशक्त्या मन्त्रेण विप्राः क्षयिणं न शेकुः / एनं पयोधिर्मणिभिर्न पुत्रं सुधा प्रभावैर्न निजाश्रयं वा / / 66 / / त्रातुमिति / मृतसंजीविन्यादय ओषधयः स्वशक्त्या स्वसामथ्यन निजरसवीर्यविपाकाभ्यां कृत्वा ओषधीशत्वात् पतिमेनं चन्द्रं क्षयिणं प्रतिदिन कलाक्षयवन्तम् , अथ च-क्षयरोगिणं सन्तं त्रातुं न शेकुः / तथा-विप्रा द्विजराजत्वान्निजस्वामिनं क्षयिणं मन्त्रेण श्रुतिसामर्थेन कृत्वा रक्षितुं न शेकुः / तथा-पयोधिरपि पुत्रं क्षयिण. मेनं मणिभिरनेकप्रकारैरन्तःस्थै रत्नैः कृत्वा रक्षितुं न शशाकेति वचनविपरिणामः / तथा-सुधापि स्वाधारभूतं क्षयिणमेनमजरामरत्वजनकैः प्रभावैः कृत्वा त्रातुं न शशाक / 'वा' समुच्चये / ओषध्यादयः स्वशक्त्यादिरक्षणसाधने सस्यपि पतित्वात्पु. चत्वानिजाश्रयत्वाच्च क्षयातितुं समर्था न बभूवुरिति विशेषोक्त्या पूर्वकर्मजो रोगो महानुभावैरप्यपनेतुं न शक्यत इति व्यज्यते / 'अचिन्त्यो हि मणिमन्त्रौषधीनां प्रभाव' इत्योषध्यादीनां सामथ्र्य प्रसिद्धम् // 99 // क्षयी ( प्रतिदिन क्षीण होनेवाले, पक्षा०-क्षयरोगसे युक्त ) अपने पति ( ओषधिपति ) चन्द्रमाको ( सजीवनी आदि ) ओषधियां अपनी शक्तिसे नहीं बचा सकों, ब्राह्मणलोक (द्विजराज-ब्राह्मणों के राजा ) चन्द्रमाको मन्त्रसे नहीं बचा सके, समुद्र ( अपनेसे उत्पन्न होने के कारण ) पुत्र चन्द्रमाको मणियोंसे नहीं बचा सका और अमृत भी स्वाश्रय चन्द्रमाको अपने प्रभावोंसे नहीं बचा सका / [ 'क्षयी' शब्दका प्रत्येक चन्द्रके साथ सम्बन्ध करना

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