Book Title: Naishadh Mahakavyam Uttararddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office
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________________ 1460 नैषधमहाकाव्यम् / तादृशी, तथा विचित्रं नानाविधम् , करस्य पाणेः, चापल्यं चाञ्चल्यम् , कराङ्गुली. चालनेन द्रुतवादनरूपमित्यर्थः / अन्यत्र-विचित्रम् अद्भुतम् मनोहरमित्यर्थः / करस्य शुण्डादण्डस्य, चापलं सञ्चालनचापत्यम् , आभजन्ती सम्यक प्राप्नुवती सती, स्तम्बरमी हस्तिनी इव / 'स्तम्बकर्णयो रमिजपोः' इत्यच , 'हलदन्तात् सप्तम्याः संज्ञायाम्' इत्यलुक . 'जातेरस्त्रीविषयात्-' इत्यादिना डीप। निषादेन तदाख्यस्वरविशेषेण, मधुरं रम्यम् , ततं विस्तृतं तारञ्च, नादं ध्वनि बृंहणन्च, उजगार उद्गीर्णवती, आविश्वकारेत्यर्थः / एकत्र-वादननैपुण्यात् , अन्यत्र-निषादम्च गजो ब्रते' इति पशुशास्त्रादिति भावः // 113 // (राज-समूहमें श्रेष्ठ (नल ) के पासमें स्थित, (बाइस प्रकारकी ) श्रुतियों ( स्वरोंके) सहित षड्ज आदिके ऊपर ( नादप्रान्तमें ) कम्पित-स्वर करनेवाली ) ( अथवा-श्रुतियों के सहित ( वीणाके ) ऊपर भागमें ( सब अङ्गलियोंके ) कम्पनको करनेवाली ( अथवा-बाइस श्रुतियोंके जानने वालों के हर्षजन्य मस्तकको कम्पित करनेवाली ) विचित्र (आरोहावरोह क्रमवश अनेकविध ) हस्ताङ्गलिकी चञ्चलताको प्राप्त उस वीणाने उस प्रकार 'निषाद' नामक स्वरसे मधुर उच्चस्वरको किया, जिप्त प्रकार पर्वत-समूहमें हाथीके समीप स्थित, दोनों कानके सहित मस्तकको कम्पित करनेवाली, विचित्र शुण्डादण्डकी चञ्चलताको प्राप्त अर्थात् शुण्डादण्डको विचित्र ढंगसे हिलाती हुई इस्तिनी निषाद स्वरसे मधुर ध्वनिको करती है ( हाथीको 'निषाद'' स्वरसे बोलनेका स्वभाव होता है ) // 113 // आकृष्य सारमखिलं किमु वल्ल कीनां तस्या मृदुस्वरमसर्जि न कण्ठनालम् ? / तेनान्तरं तरलभावमवाप्य वीणा होणा न कोणममुचत् किमु वा लयेषु ? // आकृष्येति / वल्लकीनां वीणानाम् , अखिलं समग्रम् , सारम् उत्कृष्टांशम् , आकृष्य सङ्गृह्य, मृदुः कोमलः, स्वरः ध्वनिः यस्य तत् तादृशम, तस्याः दमयन्त्याः, कण्ठनालं गलनाली , न असर्जि किमु ? न सृष्टं किम् ? ब्रह्मणा इति शेषः / अपि तु तादृशमेवासर्जि इत्यर्थः / कथमन्यथा वीणारवादपि दमयन्तीकण्ठरवस्य माधुर्यातिशय इति भावः / तेन कारणेन, आन्तरम् अभ्यन्तरस्थितम् , तरलभावं ध्वनि - 1. षडजादीनां स्वराणामतिसूक्ष्मांशाः श्रतयो भवन्ति / तत्र षड़जे 4, ऋषभे 3, गान्धारे 2, मध्यमे 4, पञ्चमे 4, धैवते 3 तथा निषादे 2 श्रुतयो भवन्ति / एवं सप्तसु स्वरेषु सङ्कलनया (4+3+2+4+4+3+2+22) द्वाविंशतिः श्रुतयो भवन्तीति बोध्यम्। 2. तदुक्तं नारदेन-'षडज रौति मयूरस्तु गावो नर्दन्ति चर्षभम् / अजाविकौ च गान्धारं क्रौञ्चो वदति मध्यमम् // पुष्पसाधारणे काले कोकिलो रौति पञ्चमम् / अश्वस्तु धैवतं रौति निषाद रौति कुञ्जरः॥ इति /

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