________________ एकविंशः सर्गः। 1487 (हे प्रिये दमयन्ति !) जिस कारणसे तुम कटिमागमें अणिमा ( अत्यन्त कृशता, पक्षा०-'अणिमा' नामकी सिद्धि ) वाली हो, गरिमा तथा महिमा ( गुरुता - भारीपन तथा विशालता, पक्षा०-'गरिमा तथा महिमा' नामकी दो सिद्धियों) से युक्त दोनों नितम्ब तथा दोनों स्तनोंवाली हो अर्थात् तुम्हारे दोनों नितम्ब भारी एवं बड़े हैं तथा स्तनद्वय पीन तथा उन्नत हैं; चित्तमें जागरूक (निरन्तर उद्यत ) वशित्व (पक्षा०-'वशित्व' नामकी सिद्धि ) वाली हो अर्थात सर्वदा चित्तको वशमें रखती ( जितेन्द्रिया, या-पतिव्रता) हो; मुस्कानमें लघिमा ( लाघवता, पक्षा०–'लघिमा' नामकी सिद्धि ) धारण करती अर्थात् थोड़ा मुस्काती हो; मेरे ( नल) के प्रति ईशित्व ( स्वामित्व, पक्षा०- ईशित्व' नामकी सिद्धि ) प्राप्त करती हो अर्थात् मेरी प्राणेश्वरी हो; सूक्तिमें प्राकाम्य ( अत्यधिकता पक्षा०'प्राकाम्य' नामकी सिद्धि ) से रमणीय हो अर्थात् श्लेष, वक्रोक्ति, माधुर्यादि युक्त भाषण करनेसे रमणीय हो; और ( पूर्वादि चारों) दिशाओं तथा ( आग्नेयादि चारो) विदि. शामि यश ( सौन्दर्यादि प्रसिद्धि ) से इच्छानुसार अनवरुद्ध प्रखर गति (पक्षा०'कामावसाय' नामकी सिद्धि ) को प्राप्त की हो; इस कारणसे तुम्हारी रचना करके हर्षयुक्त ईश्वरने अपनी शिल्पिभूत तुम्हारे लिये आठों भूतियों ( सिद्धियों) को दे दिया है। [ कोकमें भी कोई व्यक्ति जिस प्रकार सत्पुत्रको उत्पन्न कर उसके लिए अपने सम्पूर्ण ऐश्वर्यकी दे देता है वैसे ईश्वर ( तुम्हारे रचयिता शिवजी, पक्षा०-ऐश्वर्यवान् पिता) ने भी उक्तगुणोंवाली सर्वश्रेष्ठ ( तुम्हारे लिये अपनी आठों विभूतियोंको दे दिया है, इसीसे तुममें वे वर्तमान हैं / प्रकृतमें तुम्हारी वाणी पर्याप्त रमणीय है, यह प्रकरणका विषय है, अन्य वर्णन प्रासङ्गिक हैं ] // 145 // त्वद्वाचः स्तुतये वयं न पटवः पीयूषमेव स्तुमस्तस्यार्थे गरुडामरेन्द्रसमरः स्थाने स जानेऽजनि / द्राक्षापानकमानमर्दनसृजा क्षीरे दृढावज्ञया यस्मिन्नाम धृतोऽनया निजपदप्रक्षालनानुग्रहः // 146 // स्वदिति / हे प्रिये ! वयं नलादयः, स्वद्वाचः तव सुमधुरवाण्याः, स्तुतये प्रशंसायै, न पटवः न समर्थाः, तस्मात् पीयूषम् अमृतमेव, स्तुमः प्रशंसां कुर्मः, तस्य पीयूषस्य, अर्थे निमित्तम् , सः पुराणादिप्रसिद्धः, गरुडस्य वैनतेयस्य, अमरेन्द्रस्य देवेन्द्रस्य च, समरः युद्धम् , अजनि जातः, तत् स्थाने युक्तम् , जाने इत्यहं मन्ये / द्राक्षापानकस्य पक्कद्राक्षासम्बन्धिनः संस्कृतपानीयविशेषस्य, मानोऽ. हकारः, माधुर्यातिशयरूप इति भावः / तस्य मर्दनं खण्डनम् , सृजति विदधातीति ताशया, तथा क्षीरे दुग्धे विषये, दृढा निश्चला, अन्येन स्याजयितुम् अशक्या इत्यर्थः / अवज्ञा अनादरः यस्याः ताशया, अनया तव वाण्या, यस्मिन्नमृते, निजपदयोः स्वचरणोः, प्रक्षालनेनैव शोधनेनैव, अनुग्रहः प्रसादः, धुतः कृतः,