Book Title: Naishadh Mahakavyam Uttararddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 871
________________ 1568 नैषधमहाकाव्यम् / चन्द्रमा, सङ्कुचित करनेसे ) कमलोंको पराजितकर तुम्हारे मुखरूप कमलसे पराजित हो रहा है। [इससे सब क्षत्रियों की अपेक्षा रामचन्द्र जीको प्रबलतम होनेके समान सब कमलोंकी अपेक्षा दमयन्तीके मुखका श्रेष्ठ होना सूचित होता है ] // 131 // पौराणिक कथा- जनकपुरीमें सीतास्वयंवर में शिवजीके धनुषको तोड़नेसे रामचन्द्रजी. पर क्रुद्ध हुए परशुरामजीको रामचन्द्र जीने पराजित किया था। यह कथा वाल्मीकीय रामायणके अयोध्याकाण्ड में है। अन्तः सलक्ष्मीक्रियते सुधांशो रूपेण पश्ये ! हरिणेन पश्य | इत्येष भैमीमददर्शदस्य कदाचिदन्तं स कदाचिदन्तः // 132 / / अन्तरिति / हे पश्ये चन्द्रदर्शनप्रवृत्ते भैमि ! हरिणेन पाण्डुरेण रूपेण वर्णेन कर्ता सुधांशोरन्तः प्रान्तभागः पूर्वमश्रीकोऽपोदानी सलक्ष्मीक्रियते सश्रीः क्रियते स्वं पश्य / अथ च-चन्द्रस्य मध्यं हरिणेन मृगेण का रूपेण स्वीयनीलवर्णन कृत्वा असलचम सलक्ष्म क्रियते सलचमीक्रियते / सकलङ्क क्रियत इत्यर्थः। पश्य / एष स नल इत्यमुना प्रकारेणास्य चन्द्रस्यान्तं पर्यन्तभागं कदाचित्क्षणमात्रं भैमीमददर्शत् दर्शयामास, कदाचिञ्चान्तमध्यभागं दर्शयामास / अमुल्यादिना चन्द्रश्वेत. नीलप्रान्तमध्यभागप्रदर्शनपूर्व श्लिष्टपदेस्तया सह क्रीडां चकारेति भाव इति मध्ये कवेरुक्तिः / 'हरिणः पाण्डुरः पाण्डुः' इत्यमरः / अन्तः' इत्यकारान्तमेकत्र, 'अन्तः' इत्यव्ययमपरत्र मध्यवाचि / 'लक्ष्मी'शब्दस्य समासान्तविधेरनित्यत्वात्कबभावे 'सलचमी'शब्दाच्च्विः / पक्षे 'सलक्ष्म'शब्दाच्विः / पश्ये, 'पाघ्रा-' इत्यादिना कर्तः येव शः / शेर्बुद्ध्यर्थत्वात् 'गतिबुद्धि-' इत्यणौ कर्तुणों कर्मरवा मीमिति द्वितीया // ___'हे पश्ये ( चन्द्रमाको देखने में संलग्न, दमयन्ति ) ! श्वेत वर्ण ( सफेद रंग) चन्द्रमा. के प्रान्त भागको शोभान्वितकर रहा है (पक्षा०–कलङ्कात्मक मृग चन्द्रमाके मध्यभागको कलकान्वित ( कृष्णवर्ण) कर रहा है ) देखो, ऐसा कहकर उस नलने कभी चन्द्रमाका प्रान्तमाग और कमी मध्यभाग दमयन्तीको दिखलाया। [ श्लेषयुक्त, 'अन्तः, हरिणेन, सलक्ष्मीक्रियते' पदोंसे चन्द्रवर्णन करके उस ( चन्द्रमा) के प्रान्तमागस्थ श्वेत वर्ण तथा मध्यभागस्थ कृष्णवर्णको दमयन्ती के लिए दिखला-दिखलाकर उसके साथ नल क्रीडा करने लगे ] // 132 // सागरान्मुनिविलोचनोदराद्यवयादजनि तेन किं द्विजः ? / एवमेव च भवनयं द्विजः पर्यवस्यति विधुः किमत्रिजः ? // 133 / / सागरादिति / अयं चन्द्रः सागरात् मुनिविलोचनोदराच्चैतद्रूपावयासकाशाद्यधस्मादजनि उत्पन्नः, तेन कारणेन द्वाभ्यां जातत्वाद् द्विजः किम् ? एवमेव चानयैव रीत्या द्वाभ्यां जातत्वादेव द्विजो भवनप्ययं विधुरत्रेच्नेर्जातः किं कथं पर्यवस्यति ? द्वाभ्या जातत्वे सत्यपि अत्रिमुनेरेव जात इति तात्पर्यवृत्त्या कथमुच्यत इत्यर्थः /

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