Book Title: Naishadh Mahakavyam Uttararddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 852
________________ द्वाविंशः सर्गः। 1544 समान नदियोंसे व्याप्त पृथ्वी ( कलङ्कात्मक अपनी) छायाके छलसे इस अमृतसमुद्र (चन्द्रमा ) में गोता लगाकर थकावटको दूर कर रही है। [ लोकमें भी परिश्रमसे थका हुआ तथा बहते हुए पसीनेकी धाराओंसे व्याप्त कोई व्यक्ति जलाशयमें गोता लगाकर (नहाकर ) थकावटको दूर करता है। कोई-कोई आचार्य चन्द्रमामें दृश्यमान कलङ्कको पृथ्वीकी छाया मानते हैं ] // 91 // ममानुमैवं बहुकालनीलीनिपातनीलः खलु हेमशैलः / इन्दोर्जगच्छायमये प्रतीके पोतोऽपि भागः प्रतिबिम्बितः स्यात् // ममेति / हेमशैलो मेरुः खलु निश्चितं सर्गमारभ्याद्ययावदतिक्रान्तेन बहुना कालेन कृत्वा नीलीनिपातः श्यामिकालगनं तेन कृत्वा वा नीलः बहुकालीनत्वानीलमलसंबन्धान्नीलवर्णः संजातोऽस्तीति, एवंप्रकारा ममानुमाऽनुमानम, एवमहं संभावयामीत्यर्थः / अन्यथा यदि स्वर्णाचलः कालभूयस्स्वेन न नीलीभूतः किंतु हेममयस्वात्पीत एव स्यात् , तर्हि इन्दोर्जगच्छायमये जगत्प्रतिबिम्बभूते कलङ्करूपे प्रतीके. ऽवयवे मेरोः पीतोऽपि भागः प्रतिबिम्बितः स्यात्पीतोऽशोऽपि दृश्येत, तस्मात्स्वर्णाचलो नील एव जातः। तथा च सकलाया अपि भूमेर्नीलवर्णस्वात्तत्प्रतिबिम्बरूपः कलकोऽपि नील एव युक्त इत्यर्थः / जगच्छाये, 'विभाषा सेना-' इति षण्डत्वम॥ सुमेरु पर्वत ( सृष्टिके आरम्मसे आजतकके ) बहुत अधिक समम व्यतीत होने के कारण नीलिमाके लगनेसे नीला हो गया है, यह मेरा अनुमान है। अन्यथा (यदि उक्त कारणसे सुमेरु पर्वत नीला नहीं हुआ होता, किन्तु सुवर्णमय होनेसे पीला ही रहता तो) संसारकी छायाभूत चन्द्रमाके कलङ्कमें (पीले सुमेरुका ) पीला भाग भी प्रतिबिम्बित होता / [चन्द्रमामें पृथ्वीकी छाया ही कलङ्करूपमें दृष्टिगोचर होती है, यदि सुमेरु पीला होता तो इस कलङ्कमें प्रतिबिम्बित सुमेरुका पीला वर्ण भी दृष्टिगोचर होता, किन्तु सम्पूर्ण कलङ्क काला ही दृष्टिगोचर होता है, अतः अनुमान होता है कि बहुत समय बीतनेसे सुमेरु भी कृष्णवर्ण हो गया है, जिसका प्रतिबिम्ब काला ही दृष्टिगोचर होता है ] // 92 // माऽवापदुन्निद्रसरोजपूजाश्रियं शशी पद्मनिमीलितेजाः। अक्षिद्वयेनैव निजाङ्करकोरलकृतस्तामयमेति मन्ये // 93 // मेति / शशी उन्निद्रर्विकसितैः सरोजैः कृत्वा या पूजा तजनितां श्रियं मा अवा. पत्मा स्म लभत / यतः-पद्मनिमीलि कमलसंकोचकं तेजो यस्य सः / विकसितानामपि कमलानां पूजार्थं चन्द्रसविधे क्रियमाणानां चन्द्रतेजसा संकोचस्यैव संभवादु. बिद्रसरोजपूजाश्रियं प्राप्नोति ? / प्रकारान्तरेण प्रामोतीत्याह-निजाभूतस्य रतोम॑गस्याक्षिद्वयेनैवालंकृतोऽयं चन्द्रस्तामुनिद्रसरोजपूजाश्रियमेति प्राप्नोति तन्न. यनयोरुन्निद्रकमलरूपरवादिस्यर्थ इत्यहं मन्ये / अङ्कमृगनेत्राभ्यां कृत्वाऽयं चन्द्रो विकसितकमलाभ्यां पूजामिव शोभां प्राप्नोतीति भावः / एत्येवेति वा // 93 //

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