Book Title: Naishadh Mahakavyam Uttararddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office
View full book text
________________ 1556 नैषधमहाकाव्यम्। तवेति / हे प्रिये ! अयं मृगः तवानने जातचरी भूतपूर्वां गीति स्वरमाधुरी निपीय सादरमाकण्यदानीमपि तस्या भवद्गीतेराकर्णनलोलुपोऽतितरां लुब्धोऽति. सादृश्यात्वद्वदनभ्रमेण विधुं हातुं जातु कदाचिदपि न स्पृहयतीत्यहमवैमि; 'मृगा हि गानप्रिया भवन्ति' इति चन्द्रं स्वन्मुखभ्रान्त्या त्यक्तुं नेच्छतीत्यहं शङ्क इत्यर्थः। जा. तचरी, भूतपूर्वे चरट्' / लोलुपः, यङन्तापचाद्यचि 'यङोऽचि च' इति यङोलुक् // 'तुम्हारे मुखमें भूतपूर्व ( अमतरसप्रवाहवत् कर्णप्रिय ) गीति ( गाने ) को अच्छी तरह पीकर अर्थात् सुनकर उस (गीति ) को सुनने के लिए लोभी यह ( चन्द्रमामें दृश्यमान कलङ्कात्मक ) मृग भ्रमसे तुम्हारे मुखसे कभी भी चन्द्रमाको नहीं छोड़ना चाहता है, ऐसा मैं जानता हूँ। [ गानप्रिय होने से यह मृग चन्द्रमाको ही तुम्हारा वह मुख समझकर उसे कमी नहीं छोड़ता है, जिस तुम्हारे मुखसे पहले इसने कर्णप्रिय मधुर स्वरवाली गीतको सुन चुका है ] / / 106 // इन्दोर्धमेणोपगमाय योग्ये जिह्वा तवास्ये विधुवास्तुमन्तम् / गीत्वा मृगं कर्षति भन्त्स्य ता कि पाशोबभूवे श्रवणद्वयेन ? ||107|| इन्दोरिति / अतिसादृश्यादिन्दुरेवेदमितीवेन्दोभ्रंमेण मृगस्योपगमाय योग्ये प्राप्तुम, तवास्ये वर्तमाना जिह्वा की गीत्वा वर्णस्वरमाधुर्यं कृत्वा विधुरूपं वास्तु वसतिगृहं तद्विद्यते यस्य तं विधुवास्तुमन्तं चन्द्रमध्यस्थायिनमपि मृगं कर्षतु / गीते. मधुरतमत्वान्मगस्य च प्रियगानस्वारस्वसमीपमानयस्वित्यर्थः। तदाकर्षणसाधनमु. स्प्रेक्षते–भन्स्यता आगमिष्यतो मृगस्यात्रैव निवासार्थ बन्धनं करिष्यता श्रवणद्वयेन पाशीबभूवे किम् ? तद्रूपया बन्धनरज्ज्वा समाकर्षस्वित्यर्थः / अन्यापि शबरी गीत्या मगमाकृष्य पाशेन बध्नाति / भवन्मुखं निष्कलङ्कमृताधिकगीतियुक्तं च; चन्द्रस्तु सकलङ्क इति भावः / चन्द्रवर्णनावसरेऽपि मध्ये मध्ये भैमीमुखवर्णनानुरागातिशय सूचनार्था / अयं श्लोकः क्षेपक इति केचित् // 107 // . ( चन्द्रमाके भ्रम ( अत्यन्त समानता होने के कारण तुम्हारे मुखको ही चन्द्रमा जानने)से ( मृगको ) आने के लिए योग्य तुम्हारे मुखमें ( स्थित ) जीम गानेसे चन्द्रमें निवास करने. वाले मृगको खींचता है और ( उस मृगको ) भविष्यमें बाँधनेवाले ( आकर्षणके समानभूत ) दोनों नेत्र रस्सी हो गये हैं क्या ? : [ मधुरगीतले आकृष्ट होना मृगका स्वभाव होता है। दूसरी कोई भी शपरी गाने के वशीभूत मृगको रस्सीसे बाँधकर खींचती है ] // 107 / / गगनस्थोऽपि मृगो भैमीमखगीति कथमशृणोदित्याशङ्कयाह आप्यायनाद्वा रुचिभिः सुधांशोः शैत्यात्तमःकाननजन्मनो वा / यावन्निशायामथ धर्मदुःस्थस्तावबजत्यह्नि न शब्दपान्थः ||108|| आप्यायनादिति / शब्दरूपः पान्थो नित्मपथिको निशायां यावद्बजति ताव दथ पश्चारसाकल्येन वा अहि न गच्छति, यस्माहिने धर्मेणातपेन दुःस्थः संतप्तः,

Page Navigation
1 ... 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900 901 902 903 904 905 906 907 908 909 910 911 912 913 914 915 916 917 918 919 920 921 922