Book Title: Naishadh Mahakavyam Uttararddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 879
________________ 1576 नैषधमहाकाव्यम् / और चन्द्रमासे अलग की गयी उस एक कलाके कृष्णवर्णवाले स्थानके बिल (रिक्त = शून्य स्थान ) को इस चन्द्रमामें कलङ्क देखता हूं। [ चन्द्रमाकी सोलह कलाएँ हैं, और एक-एक तिथियोंमें एक-एक कला ही बढ़ती है, इस प्रकार शुक्लपक्षको प्रतिपदा तिथिसे पूर्णिमातक पन्द्रह कलाएँ ही चन्द्रमा गोलाकार ( पूर्ण ) बना देती हैं, किन्तु कलाओं को सोलह तथा तिथिओं के पन्द्रह होनेसे एक चन्द्रकला बच जाती है, जो शिवजीका नित्य शिरोभूषण बनकर रहती है और उस एक कलाका स्थान पूर्णचन्द्रमें खाली रहता है और नीलाकाशसे मिश्रित उसी रिक्त स्थानको हम चन्द्रमाके मध्य में कृष्णवर्ण कलङ्क रूप में देखते हैं ] // 140 // ज्योत्स्नामादयते चकोरशिशुना द्राघीयसी लोचने लिप्सुर्मूलमिवोपजीवितुमितः सन्तर्पणात्मीकृतात् | अङ्के रङ्कुमयं करोति च परिस्प्रष्टुं तदेवाहत स्त्वद्वक्त्रं नयनश्रियाऽप्यनधिकं मुग्धे ! विधित्सुविधुः / / 141 / / ज्योत्स्नामिति / हे मग्धे सुन्दरि ! स्वद्वक्त्रं वृत्तत्वादिगुणैः समानमपि नयनश्रियापि कृत्वानधिकं समानमेव विधिस्सुः, अत एव स्वस्य द्राघीयसी अतिदीर्घ लोचने लिप्सुलब्धुमिच्छुर्विधुश्चकोरशिशुना प्रयोज्येन स्वीयां ज्योत्स्नामादयते भक्ष. यति। तत्रोस्प्रेक्षते-चन्द्रिकामृतपायनकृतसम्यकपणेनात्मीकृतात्स्ववशीकृतादित. श्वकोरबालकासकाशान्मूलं स्वचन्द्रिकापायनहेतुभूतमेतदीयातिदीर्घनेत्रद्वयमुपजीवि. तुमादातुमिव / यद्वा-यत्किंचित्स्वस्य चन्द्रिकां पाययित्वा ततो नेत्रद्वयलक्ष्मी. प्राप्त्या मूलं चन्द्रिकारूपधनं वर्धयितुमिव / अन्योऽप्युत्तमोऽधमणस्य किंचिहत्वा तं वशीकृत्योत्तममिष्टं वस्तु ततो गृह्णाति / तथा-अयं चन्द्र आहत आदरयुक्तः सन्नके मध्ये, अथ च-उत्सङ्गे, रकुं च करोति / उत्सङ्गधारणेन लालयतीत्यर्थः। किमर्थमित्याशङ्कयाह-तन्मूलभूतमतिविशालं तदीयनयनयुगलं परिस्प्रष्टुमिव स्वलग्नं कर्तुमिव, त्वन्मुखसाम्यनिमित्तरमणीयनेनद्वयसंपादनायायं चन्द्रश्वकोरहरिणौ वञ्च. यतीत्यर्थः / चन्द्रादुत्कृष्टं स्वन्मुखमिति भावः। 'परिप्रष्टुम्' इति पाठे एतन्नेत्र. रामणीयकप्राप्त्युपायं प्रष्टुमिवेत्यर्थः / शिशुः सुप्रतार्य इति सूचयितुं 'शिशु'पदम् / आदयते, अदेगिरणार्थत्वेऽपि 'अदेःप्रतिषेधो वक्तव्यः' इति वक्तव्यात् 'निगरण-' आदि (सूत्रेण) परस्मैपदाभावे, 'णिपश्च' इति तङ। शिशुना, 'आदिखाद्योन' इत्यणौ कर्तुणौ कर्मस्वाभावः / द्राधीयसी अतिशायने ईयसुनि 'प्रियस्थिर-' इति / द्राघादेशः / लिप्सुः, विधिसुरिति च, 'न लोका-' इति षष्ठीनिषेधः // 14 // हे सुन्दरि ! ( आह्लादकत्व, वृत्तत्व एवं सौन्दर्यादि गुणोंसे समान भो ) तुम्हारे मुखको नेत्रशोभासे समान करना चाहता हुआ ( अत एव अपने ) बड़े-बड़े नेत्रद्वयको पानेका इच्छुक तथा भाग्रहवान् ( तत्पर ) यह चन्द्रमा ( अपनी चन्द्रिकाको खिलाकर ) अत्यन्त

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