________________ 1076 नैषधमहाकाव्यम् / सम्पूर्ण धन मुझे प्राप्त हो जायेगा, यह इतना धनवान् होकर सुखी कैसे हो गया ? इत्यादि सोचते हुए बैर करनेवाले हैं / लोभ (धनिकोंसे येन केनापि प्रकारेण धन लेनेकी प्रवृत्ति, अथवा कृपणताके परवश होकर धनको सुरक्षित रखने ) के संक्षोभको छोड़कर (पाठा०बलात्कारसे रोककर ) धनिकोसे धन लेने में यदि कोई उदासीन होते हैं तो वैसे केवल एक या दो ही हैं, अधिक नहीं [ अत एव दानादि करने का उपदेश वञ्चना एवं अपनो उदरपूर्तिका साधनमात्र है, परलोकमें सुखोत्पादक नहीं, इस कारण दान करना नहीं चाहिये ] / / 81 // देन्यस्यायुष्यमस्तैन्यमभक्ष्यं कुक्षिवञ्चना / स्वाच्छन्द्यमृच्छतानन्द-कन्दलीकन्दमेककम्।। 82 / / दैन्यस्येति / अस्तैन्यम् अस्तेयं, चौर्याभावः इत्यर्थः / क्वचित् प्रप्तज्य प्रतिषेधेऽपि मसमास इष्यते अहिंसेतिवत् / दन्यस्य दारिद्रयस्य, आयुषे हितम् आयुष्यं वृद्धिकारकमित्यर्थः / चौर्य विना दैन्यं नापयातीति भावः / हितार्थे यत्-प्रत्ययः / अभक्ष्य लशुनग्राम्यशूकरादिभोजनविरतिः, कुक्षः जठरस्य, वञ्चना प्रतारणा एव, सुस्वादुवा स्तुभोजनपरित्यागात् जठरमेव वञ्चितं भवति, न तु ततः कश्चित् धर्म इति भावः अतः आनन्दकन्दलीकन्दम् आनन्दाङ्करमूलसकलसुखबीजभूतमित्यर्थः, एककस् एक. मात्रम् , असहाये कन्-प्रत्ययः। स्वाच्छन्द्यं स्वेच्छाचारित्वम् , ऋच्छत अवलम्बध्वम् , श्रुतिस्मृतिपुराणादिप्रतिपादितान् निषेधान् उल्लङ्घय सकलसुखनिदानं स्वेच्छाचारित्वमेव कुरुतेति भावः // 82 // ___ अचौर्य ( चोरी नहीं करना ) दीनताकी आयुका हितकारी है (चोरी नहीं करनेसे दीनता बहुत दिनोंतक बनी रहती है, अतः चोरी करके दीनता ( दरिद्रता ) को दूर करना चाहिये ), अमक्ष्य ( लशुन, प्याज, ग्राम्यसूकर आदि अभक्ष्य हैं यह कथन ) पेटको वञ्चित करना ( ठगना ) ही है ( सुस्वादु एवं पुष्टिकारक लहसुन, प्याज, ग्राम्यसूकरका मांस आदि नहीं खाना पेटको ठगना है, अतः इनको अभक्ष्य बतलानेवाले धर्मशास्त्र वचनोंकी अवहेलना करके इनका भक्षण करना चाहिये / अधिक क्या कहा जाय-) आनन्दकन्दका मूल स्वच्छ. न्दता ( श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त धर्मका त्यागकर स्वेच्छाचरिता जो कुछ भी खाना, जिस किसीके साथ सम्भोग करना आदि ) का आश्रय करो / / 82 // इत्थमाकर्ण्य दुर्वर्णान् शक्रः सक्रोधतां दधे / अवोचदुच्चैः कस्कोऽयं धर्ममर्माणि कृन्तति ? / / 83 // इत्थमिति / शक्रः इन्द्रः, इत्थम् एवंविधान् , दुर्वर्णान् वेदादिदूषकाणि चार्वाकदुर्वाक्यानि, आकर्ण्य श्रुत्वा, सक्रोधतां दधे चुक्रोध / कः ? अयं वेदादिदूषकः जनः, कः ? क इत्यस्य कोपे द्विरुक्तिः / 'कस्कादिषु च' इति सकारः। धर्ममर्माणि अति १.'-धं विन्दता-' इति पाठान्तरम् /