Book Title: Naishadh Mahakavyam Uttararddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 869
________________ 1566 नैषधमहाकाव्यम् / मृगाक्षीति / हे मृगाक्षि हरिणीनेत्रे! यदेतत्प्रत्यक्षदृश्यमिन्दोमण्डलं तरस्मरस्य पाण्डुरं श्वेतं साम्राज्यसूचकमातपत्रमेव / श्वेतच्छत्रदर्शने सति सम्राजो वश्या भवन्ति / पूर्णधवलचन्द्रमण्डलस्य चोद्दीपकत्वात्तदर्शने सर्वेऽपि कामस्य वश्या भवन्ति / तस्मादेतत्कामस्य श्वेतातपत्रमेवेति भावः / यश्च पूर्णिमानन्तरमस्य च्छत्रः भूतस्येन्दुमण्डलस्य भङ्गो मोटनं कलाक्षयश्च स मन्मथस्य च्छत्रभङ्गः खलु / छत्रस्य मोटनं राजक्षयं सूचयति / कृष्णपक्षे चोद्दीपकमित्रचन्द्रक्षये कामः क्षीण एव भवति, तस्मारकृष्णपक्षे योऽस्य भङ्गः स कामस्य छत्रभङ्ग इव स एव वेति भावः / 'खलु' उत्प्रेक्षायां निश्चये वा // 128 // हे मृगनयनि ( दमयन्ति ) ! जो यह चन्द्रमण्डल है, वह कामदेवरूप राजाका श्वेत छत्र है और पूर्णिमाके बाद जो इस चन्द्रमण्डलका भङ्ग ( क्रमशः कलाक्षय ) होता है, वह कामदेवका छत्रमङ्ग ( राज्यनाश ) है / [ जिस प्रकार श्वेतच्छत्रधारी राजाकी आज्ञाको सभी मानते हैं और उस श्वेतच्छत्रके मङ्ग (राज्य नाश ) होनेपर उसकी आशाको कोई नहीं मानता, उसी प्रकार पूर्णचन्द्र होनेपर सभी कामदेवरूप राजाको आशाको .मानते ( पूर्ण चन्द्र के उदय होनेपर कामोद्दीपन होनेसे कामवशीभूत रहते.) हैं और पूर्णिमाके बाद क्रमशः चन्द्रमाके क्षीण होनेपर कामोद्दीपन नहीं होने से कोई भी कामदेवकी आज्ञाको नहीं मानता ( कामोद्दीपन न होनेसे कामवशीभूत नहीं होता ) / चन्द्रमा को देखनेसे कामवृद्धि तथा नहीं देखनेसे कामक्षीणता होना लोकप्रसिद्ध है // 128 // दशाननेनापि जगन्ति जित्वा योऽयं पुराऽपारि न जातु जेतुम् / म्लानिर्विधोर्मानिनि ! सङ्गतेयं तस्य त्वदेकानननिर्जितस्य / / 126 / / दशेति / दिग्विजयोधतेन दशाननेनापि जगन्ति जिस्वापि योऽयं चन्द्रः पुर। पूर्व जातु कदाचिदपि जेतुं नापारि। हे मानिनि स्वमुखस्पर्धिनं चन्द्रमसहमाने भैमि ! तस्य विधोरियं प्रत्यक्षदृश्या कलङ्करूपा म्लानिर्लज्जा संगता लग्ना, अथ च युक्तैव / यतस्तवैकेनाननेन नितरां जितस्य / यो हि दशाननेन दशभिर्मुखर्जेतुं नाशकि, तस्य स्त्रियास्तवैकेन मुखेन विजितत्वेन लज्जया मालिन्यमुचितमेवेत्यर्थः / स्वन्मुखमेतस्मादधिकमिति भावः। प्रतीयमानोत्प्रेक्षा। लज्जयापि म्लानिर्भवति / रावणश्चन्द्रं जेतुं प्रवृत्तस्तत्तषाराग्निना दह्यमानः कम्पमानतनुस्तमजिस्वैव परावृत्त इत्युत्तरकाण्डे कथा // 129 // (दिग्विजयके लिए तत्पर ) दशानन (दशमुखवाला रावण ) भी लोकत्रयको जीतकर पहले जिस ( चन्द्रमा ) को नहीं जीत सका, हे मानिनि ( तुम्हारे मुखके साथ स्पर्धा करनेसे चन्द्रमाके प्रति मान करनेवाली हे दमयन्ति ) ! तुम्हारे एक ही मुखसे पराजित उस चन्द्रमामें यह ( प्रत्यक्ष दृश्यमान कलङ्करूप ) मालिन्य लग गया है। [ दश मुखवालेसे भी नहीं पराजित होनेवाले चन्द्रमामें एक मुखवाली [ अथच-उसमें भी

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