Book Title: Naishadh Mahakavyam Uttararddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office
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________________ 1562 नैषधमहाकाव्यम् / पश्योच्चसौधस्थितिसौख्यलक्ष्ये त्वत्केलिकुल्याम्बुनि बिम्बमिन्दोः। चिरं निमज्ज्येह सतः प्रियस्य भ्रमेण यच्चुम्बति राजहंसी // 120 / / पश्येति / हे प्रिये ! स्वमुच्चसौधे स्थित्या कृत्वा सौख्येन निरन्तरायं लचये दृश्ये स्वत्केलिकुल्याया अम्बुनि तदिन्दोर्बिम्बं पश्य / तस्किम् ? राजहंसी इह कुल्याजले निमज्य चिरं सतोऽन्तर्वर्तमानस्य प्रियस्य राजहंसस्य भ्रमेण यच्चन्द्रबिम्बं चुम्बति / सौख्यम् , स्वार्थे सुखिनो भाव इति भावे वा व्यञ् / 'सौचम्य-' इति पाठे-सूचम. स्वेन लक्ष्ये / उच्चतरप्रदेशस्थितं प्रति ह्यधोदेशस्थितं वस्तु सूक्ष्मं प्रतिभाति // 120 // ( हे प्रियतमे ! ) ऊँचे प्रासादपर बैठनेसे सुखपूर्वक ( पाठा०-पतला ) दिखलाई पड़ते हुए तुम्हारे क्रीडार्थ रचित नहर के जलमें (प्रतिबिम्बित ) चन्द्रमाके बिम्बको देखो, जिसे गोता लगाकर बहुत देरतक रुके हुए प्रिय (राजहंस) के भ्रमसे राजहंसी चूम रही है // 120 // सौवर्गवगैरमृतं निपीय कृतोऽह्नि तुच्छः शशलाञ्छनोऽयम् / पूर्णोऽमृतानां निशितेऽत्र नद्यां मग्नः पुनः स्यात्प्रतिमाच्छलेन।।१२१॥ सौवर्गेति / स्वर्गे भवाः सौवर्गा देवास्तेषां वगैवृन्दरमृतं निपीयाहि तुच्छो रिक्तः कृतोऽयं शशलान्छनो निशि ते तवान क्रीडानद्यां प्रतिमाच्छलेन प्रतिबिम्बव्याजेन मग्नः सन्पुनरमृतानां जलैः, अथ च-पीयूषैः पूर्णः स्याद्भवेदित्यहं संभावयामीत्यर्थः / एतेन नदीजलस्यामृतत्वं सूचितम् / अह्नि तुच्छः कृतोऽपि पुनः क्रमेणामृतैः पूर्णः सन् रात्री तव क्रीडानद्यां प्रतिमाव्याजेन मग्नः स्यात् पुनः पानभयादिव पलाय्य निलीनः स्यादित्यहं शङ्के इत्यर्थ इति वा / पूर्णोऽमृतानाम् , तृप्त्यर्थस्वाक. रणे षष्ठी // 12 // ___ स्वर्गवासियों ( देवों ) के समूहोंसे अमृतको सम्यक् प्रकारसे पीकर रिक्त ( खाली, यालघु ) किया गया यह चन्द्रमा रात्रिमें तुम्हारी इस कोडानदीमें प्रतिबिम्बके कपटसे मग्न होकर अमृतसे पूर्ण होगा (या-हो रहा है, ऐसी मैं सम्भावना करता हूं ) अथवा-"यह चन्द्रमा (क्रमशः) अमृतसे पूर्ण होकर रात्रिमें तुम्हारी क्रोडानदीमें प्रतिबिम्बके छलसे ( उन देव-समूहों के द्वारा पुनः पीये जानेके भयसे ) मग्न होगा अर्थात् छिप जायगा ऐसी मैं सम्भावना करता हूं / / 121 // समं समेते शशिनः करेण प्रसूनपाणाविह कैरविण्याः। विवाहलोलामनयोरिवाह मधुच्छलत्यागजलाभिषेकः // 122 / / सममिति / इह तव क्रीडानद्यां कैरविण्याः कुमुदिन्याः प्रसूनरूपे पाणौ शशिनः करेण रश्मिना, अथ च-पाणिना, समं सह समेते संगते सति मधु पुष्परस एव. च्छलं यस्य स तव्याजस्त्यागजलस्य कन्यादानसंकल्पोदकस्याभिषेकः कर्ता, अन. योश्चन्द्रकुमुदिन्योर्विवाहलीलामाहेव सूचतीव / चन्द्रकरस्पर्शमात्रेण कुमुदानि विक

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