Book Title: Naishadh Mahakavyam Uttararddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1553 चाहिये / सामर्थ्ययुक्त सञ्जीवनी आदि ओषधियाँ, ब्राह्मण-समूह, समुद्र और अमृत भी क्रमशः क्षयशील अपने पति, राजा, पुत्र और स्वाश्रय चन्द्रमाको नहीं बचा सके, इससे 'पूर्वकृत रोगको कोई भी नहीं टाल सकता' यह सिद्धान्त अटल है ] // 99 // मृषा निशानाथमहः सुधा वा हरेदसौ वा न जराविनाशौ / पीत्वा कथं नापरथा चकोरा विधोमरीचीनजरामराः स्युः ? // 10 // मृषेति / निशानाथस्य चन्द्रस्य महस्तेजः सुधा वा पीयूषमेवेति लोकवादो मृषा असत्य एव वा भवेत् / वा अथवा, यदि चन्द्रतेजः सुधैवेति लौकिकप्रवादः सत्य एव, तासौ चन्द्रतेजोरूपा सुधा जराविनाशौ जरामरणे न हरेद्विनाशयेदित्य. ङ्गीकार्यम् / चन्द्रतेजः सुधा नैवेति वाऽङ्गीकार्यम्, अथ चैतद्रपा सुधापि जरामरणे न नाशयतीत्यङ्गीकार्यमित्यर्थः / अपरथान्यथा यदि चन्द्रतेजः सुधेति प्रवादः सत्यः, तद्रूपा सुधा जरामरणे विनाशयेत् , तर्हि चकोराख्याः पक्षिणो विधोमरीचीन्पीत्वापि कथं किमिति न अजरामराः स्युर्जरामरणरहिता भवेयुः / चन्द्रतेजसः सुधारवे, एतस्याश्च सुधाया जरामरणविनाशे सामर्थ्यसद्भावे, तत्पाने चकोरैरप्यजरामरैर्भा. व्यम्, न च ते तथा, तस्मात्तत्तेजसः सुधात्वं वा मृषा भवेत् , सुधाभूतस्यापि वा जरामरणापहारे सामर्थ्य नास्तीत्यन्यतरदगीकार्यम् / तथा-'सुधा प्रभावेन निजाश्रयं वा' इति पूर्वश्लोकांशसमाधानमित्याशयः / 'अजरामरीस्युः'-इति पाठे विः // 10 // _ 'चन्द्रमाका तेज अमृत है' यह ( लोकप्रसिद्ध बात ) असत्य है, अथवा ( यदि वह सत्य है तो ) अमृत बुढ़ापा तथा मृत्युको दूर नहीं करता है ( ऐसा मानना चाहिये ), अन्यथा ( यदि अमृत बुढ़ापा तथा मरणको दूर करनेवाला है तो) चकोर चन्द्रमाके ( अमृतरूप) किरणोंको पीकर अजर-अमर क्यों नहीं होते ? (या तो 'अमृत जरा-मरणको दूर करनेवाला है' लोककथनको असत्य मानना पड़ेगा, अथवा 'चन्द्रतेज अमृत है' इस लोककथनको असत्य मानना पड़ेगा) // 100 / / / वाणीभिराभिः परिपक्त्रिमाभिर्न रेन्द्रमानन्दजडञ्चकार / मुहूर्तमाश्चर्यरसेन भैमि हैमीव वृष्टिस्तिमितञ्च तं सा / / 101 // वाणीभिरिति / सा भैमी आभिः पूर्वोक्ताभिः परिपाकेन निवृत्ताभिः परिणत. कवित्वशक्तितया प्रसादादिगुणयुताभिर्वाणीभिः कृत्वा तं नरेन्द्रमानन्दजडं हर्षपरवशं चकार / तथा-मुहूर्तमद्भुतापरनाम्नाश्चर्येण रसेन, अथ च-तद्रूपेण जलेन हैमी तुषारसंबन्धिनी वृष्टिरिव भैमी स्तिमितमतिस्नेहात्प्राप्तस्तम्भं च, अथ चआद्र चकार / हिमवृष्टिर्यथाऽन्यं जडमाद्रं च करोति, तथेयमप्यानन्दजडं सातिस्नेह च चकारेत्यर्थः। परिपक्रिमाभिः, डिवत्वानिवृत्तेऽर्थे क्रिः, क्रमप्॥१०१॥ ___ कवित्वशक्तिके परिपाकसे रचित इने (22 / 59-100) वचनोंसे 'दमयन्तीने राजा (नल ) को आनन्दजड (हर्षपरवश ) कर दिया, तथा ( अतिशीतल होनेसे ) अद्भुत जलसे

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