Book Title: Naishadh Mahakavyam Uttararddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 840
________________ द्वाविंशः सर्गः। 1537 कियानिति / उदितमात्रेणानेन चन्द्रेण तमोनिरासाद्धेतोः कियान् किंचिन्मा. ब्रोऽयं वियद्विभागः पूर्वाकाशदेशो यथा विशदीकृतः तथा चन्द्रकिरणरुल्लासिताभि. वृद्धि प्रापिताभिर्लावणसैन्धवीभिरद्भिः कियानयं वियद्विभागः शितिः श्यामोऽप्य. कारि / अप्रौढप्रभे चन्द्रे पूर्वाकाशदेशस्तिमिरनिरासाद्धवलो भवति, ततो निरतस्य च तमसः प्रतीच्यां घनीभूतत्वात्पश्चिमाकाशदेशः श्यामलो भवतीति तत्रेयमुत्प्रेक्षा। समुद्रजलं च नीलं, पूर्वाकाशदेश एव नीलैः समुद्रजलैः पुनर्नालोऽप्यकारीति वा। लावणसैन्धवीभिः, लवणसिन्धोरिमाः 'तस्येदम्' इत्यणि 'हृद्भगसिन्ध्वन्ते पूर्वपदस्य च' इत्युभयपदवृद्धिः // 71 // (उदित होनेमात्रसे ) इस चन्द्रमाने अन्धकार दूर करनेसे जिस प्रकार आकाशके कुछ मागकः ( पूर्व दिशामें ) श्वेत कर दिया है ( चन्द्रोदय होनेसे ) बढ़े हुए, क्षारसमुद्रके जलने उसी प्रकार आकाशके कुछ मागको ( पश्चिम दिशामें ) काला कर दिया है। [ पहले चन्द्रोदय होते ही पूर्वदिशामें अन्धकाराच्छन्न आकाश अन्धकार दूर होनेसे स्वच्छ हो जाता है और पश्चिम दिशामें अन्धकार अधिक रहता है, इसीपर उक्त उत्प्रेक्षा की गयी है ] // 7 // गुणौ पयोधेनिजकारणस्य न हानिवृद्धी कथमेतु चन्द्रः ? | चिरेण सोऽयं भजते तु यत् ते न नित्यमम्भोधिरिवार चित्रम् / / 72 // ___ गुणाविति / चन्द्रो निजकारणस्य पयोधेोनिवृद्धिरूपौ गुणो कथं नेतु प्राप्नोतु ? अपि तु कार्यगुणानां कारणगुणपूर्वकत्वनियमादवश्यमपचयोपचयो चन्द्रं प्राप्नुत इति युक्तमेवेत्यत्र न किंचिच्चित्रमित्यर्थः। तर्हि कुत्र चित्रमित्याशङ्कयाह-सोऽयं चन्द्रस्ते हानिवृद्धी यञ्चिरेण पक्षान्तपरिमितेन बहुना कालेन भजते, न तु अम्भोधिरिव नित्यं प्रत्यहं भजते, अत्र विषये चित्रमित्याश्चर्यम् / समुद्रो यथा प्रत्यहं हानिवृद्धी भजते, तथा पुत्रोऽपि चन्द्रो नेत्याश्चर्यमित्यर्थः / / 72 // अपने किरण ( उत्पत्ति-स्थान ) भूत समुद्र के क्षीण होना तथा बढ़ना-इन दो गुणोंको चन्द्रमा क्यों नहीं प्राप्त करे ? ( इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, किन्तु ) यह चन्द्रमा उन दो गुणोंको विलम्ब से ( 15-15 दिन बीतनेपर ) तथा समुद्र सदा (प्रतिदिन ) प्राप्त करता है, यह आश्चर्य है / [चन्द्रमाके उत्पत्तिकारणभूत समुद्रके क्षय- वृद्धिरूप गुणोंको कार्यभूत चन्द्रमामें होना उचित होनेसे कोई आश्चर्य नहीं है, किन्तु उक्त दोनों ( समुद्र तथा चन्द्रमा) में उक्त गुणद्वयको क्रमशः नित्य एवं विलम्बसे होने में आश्चर्य है ] // 72 // आदर्शदृश्यत्वमपि श्रितोऽयमादर्शदृश्यां न बिभर्ति मूर्तिम् / त्रिनेत्रभूरप्ययमत्रिनेत्रादुत्पादमासादयति स्म चित्रम् / / 73 / / आदर्शति / अयं चन्द्र आदर्शवद् दृश्यत्ववृत्तवादिना रमणीयत्वं श्रितो भजमानो. ऽप्यादर्शवदृश्यां (रमणीयां) मूर्ति न बिभर्ति चित्रम् / यो शादर्शवद् दृश्यो भवति स एवादर्शवद् हश्यां मूर्ति न बिभर्ति तद्वद् श्यो न भवतीति विरोधाश्चर्यमित्यर्थः।

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