________________ सप्तदशः सर्गः। 1046 गुरुतत्पेति / किञ्च, द्विजाः ! हे विप्राः ! गुरुतल्पगतौ गुरुदारगमने, 'तल्पं शय्याऽदृदारेषु' इत्यमरः, पापकल्पनां पातकसम्भावना, त्यजत जहीत / कुतः ? येषां द्विजानां, वः युष्माकं, पत्युः स्वामिनः, द्विजराजस्य चन्द्रस्य इत्यर्थः, 'तस्मात् सोमरा. जानो ब्राह्मणाः' इति श्रुतेः, गुरोः देवगुरोः बृहस्पतेः,दारग्रहे ताराख्यभार्थ्याभिगमने, अत्युच्चैः अतिमहान् , ग्रहः निर्बन्धः, तस्मात् अत्रापि न दोषबुद्धिः कार्या इति भावः // 43 // ___ हे ब्राह्मणो ! गुरु ( शिक्षक, दीक्षागुरु, पिता, चाचा, बड़ा भाई आदि ) की स्त्रीके साथ सम्भोग करने में पापकी कल्पना छोड़ो, ( क्योंकि ) जिन तुम लोगोंके स्वामी ( द्विजराज ) अर्थात् चन्द्रमाके अपने गुरु ( बृहस्पति ) की स्त्री ( तारा) के साथ सम्भोग करने में अत्यधिक साग्रह सुना जाता है / [ बृहस्पति देवोंके गुरु माने जाते हैं, उनकी तारा नामकी स्त्रीके साथ द्विजराज ( चन्द्रमा, पक्षा०-द्विजों अर्थात् ब्राह्मणों के राजा) ने सम्भोग किया 'यथा राजा तथा प्रजा' नीति के अनुसार तुमलोगोंको भी गुरुपत्नी के साथ सम्भोग करने में महापातक लगनेका भय छोड़ देना चाहिये / इन्द्रादिके पासमें वसिष्ठ आदि निवास करते हैं, उन्हीं को सम्बोधित कर 'द्विजाः' पद कहा गया है / यहां भी चन्द्रमाका उपहास किया गया है / 'ग्रहः' के स्थानमें 'गह' पाठ होने पर..."चन्द्रमाका अत्यधिक उत्सव होता है, या गुरुपत्नीसम्भोग करनेपर भी चन्द्रमाको तेजःसमूहका प्रतिदिन उदय होता ही है, वह उक्त कमसे पतित नहीं हुआ है ] // 43 // पौराणिक कथा-चन्द्रमाने बृहस्पतिकी पत्नी तारासे पुत्र उत्पन्न किया तो उस पुत्रको ग्रहण करनेके लिए इन्द्रादि देवोंने बहुत प्रयत्न किया. उस समय उनके प्रति बडे यद्धके आरम्भ करनवाल चन्द्रमाने अपने तेजःसमूह को प्रकट किया, बादमें ब्रह्माने बृहस्पतिकी उस स्त्री को चन्द्रमासे छुड़वा दिया, फिर भी उसके गर्भसे उत्पन्न पुत्रको चन्द्रमाने ही प्राप्त किया, जिसका नाम 'बुध' है ] // पापात् तापा मुदः पुण्यात् परासोः स्युरिति अतिः / वैपरीत्यं ध्रवं साक्षात् तदाख्यात बलाबले // 44 // पापादिति / परासोः मृतस्य, पापात् ऐहिकपातकाचरणात्, तापाः दुःखानि, नरकयन्त्रणा इत्यर्थः, पुण्यात ऐहिकसुकृताचरणात् ,मुदः हर्षाः, स्वर्गः सुखानि इत्यर्थः, स्युः भवेयुः, इति एवं, श्रुतिः वेदः, आहेति शेषः, विधिनिषेधाभ्यासगम्यं तदित्यर्थः, किन्तु वैपरीत्यमुक्तश्रुतिवाक्यस्य विपर्ययं, पानागम्यागमनादिपापात् सुखं तथा यज्ञादिपुण्याद् दुःखन्चेति विपरीतफलमित्यर्थः, ध्रुवं सत्यम् एव, साक्षात् प्रत्यक्ष दृश्यते इति शेषः, तदित्यव्ययं तयोरित्यर्थः, तयोः प्रत्यक्षागमयोः, बलाबले बलवत्त्वं दौर्बल्यञ्च, आख्यात हे द्विजाः ! कथयत, ग्रावप्लवनवाक्यवत् प्रत्यक्षविरोधात यथा श्रुतिप्रत्यक्षयोर्विरोधे प्रत्यक्षस्यैव बलवत्त्वाच श्रुतिरिह दुर्बला, ततश्च पापजन्यसुखस्य प्रत्यक्षतया पापमेव सर्वैरनुष्ठातव्यमिति भावः // 44 //