________________ 1248 नैषधमहाकाव्यम्। रवीति / बलप्रतिबलस्य बलाख्यासुरप्रतिपक्षस्य पूर्वदिगधिपतेरिन्द्रस्य, बलेषु सैन्येषु, अवतिष्ठन्ते वर्तन्ते इति तदवस्थायिन्यः, बडवाः तुरङ्गया, पूर्व दिग्वतिन्य इति भावः / समीपगान् निकटस्थान् , रविरथहयान् सूर्यस्य स्यन्दनाकषिणः सप्त घोटकान् , समीच्य विलोक्य, अश्वस्यन्ति कामयन्ते, मैथुनार्थमश्वंमिच्छन्तीत्यर्थः, ध्रुवमित्युत्प्रेक्षायाम् / तथा गाढप्रेमा दृढानुरागा, अत एव स्मरशराणां कन्दर्पबाणानां पराधीनस्वान्ता परतन्त्रचित्ता, कामपीडितचित्ता इत्यर्थः। रथाङ्गविहङ्गमी चक्रवा. कपक्षिणी / 'जातेरस्त्री-' इत्यादिना डीप / निजपरिवृढं स्वप्रभुम् , आत्मनः कान्तमित्यर्थः। सम्प्रति उषाकाले, वृषस्यति मैथुनाय कामयते इत्यर्थः / रात्रिवियोगिनोः चक्रवाकमिथुनयोः दिने एव मेथुनकरणादिति बोध्यम् / 'सुप आरमनः क्यच्' इति क्यच् / 'अश्वक्षीरवृषलवणानामात्मप्रीतौ क्यचि' इत्यसुगागमः / 'अश्ववृषयोमैथुनेच्छायाम्' इति वक्तव्यादर्थनियमः // 17 // बलासुरके प्रतिपक्षी (इन्द्र ) की ( पूर्वादिशास्थित ) सेनाकी घोड़ियां समीपसे जाते हुए सूर्यके रथके ( सात ) घोड़ोंको मैथुनार्थ मानो इच्छा कर रही हैं ( अथवा-अवश्य ही इच्छा कर रही हैं। तथा इस समय (प्रातःकालमें ) कामबाणोंसे पराधीन चित्तवाली एवं अधिक प्रेमवाली चक्रवाको अपने स्वामी ( चक्रवाक ) को भैथुनार्थ चाह रही है / अथवा-इस समय (प्रातःकालमें ) कामवाणोंसे पराधीन चित्तवाली एवं अधिक प्रेम करनेवाली बलारि (इन्द्र ) की सेनामें रहनेवाली घोड़ियां अपने स्वामी समीपगामी सूर्यरथके सात घोड़ोंको मैथुनार्थ चाह रही हैं तथा कामबाणोंसे पराधीन चित्तवाली एवं अधिक प्रेम करानेवाली चक्रवाकी समीपगामी अपने स्वामी (चक्रवाक ) को मैथुनार्थ चाह रही है)। [इस अर्थमें "निजपरिवृढम्' पदको विभक्ति-विपरिणामकर बहुवचनान्त 'समीपगान्' पदको विभक्तिविप. रिणामकर एकवचनान्त करके बड़वा तथा चक्रवाकी दोनो पक्षोंका विशेषण मानना चाहिये। 'गाढप्रेमा' पद 'डाबुमाभ्यां-' सूत्रसे विकल्प डाप करनेसे तथा 'स्मरस्वान्ता' पद टावन्त करनेसे बहुवचनान्त तथा एकवचनान्त दोनों हैं, इसके बहुवचनान्तपक्षमें विसर्गलोप तथा आवन्त होनेसे सुलोपमात्र करनेसे उसको चक्रवाकी तथा वडवा-दोनों के विशेषण मानना चाहिये] // 17 // निशि निरशनाः क्षीरस्यन्तः क्षुधाऽश्वकिशोरका मधुरमधुरं हर्षन्त्येते विलोलितबालधि | तुरगसमजः स्थानोत्थायं कर्णमणिमन्थभू धरभवशिलालेहायेहाचणो लवणस्यति // 18 // निशीति / हे महाराज ! निशि रात्री, निरशनाः निराहाराः,मातुः सकाशात दूरे 1. 'हेषन्ते ते' इति 'प्रकाश' सम्मतः पाठः / 2. 'फणन्मणि मन्थभू-' इति व्यस्तपदं पाठान्तरम् /