Book Title: Naishadh Mahakavyam Uttararddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1556 एकादशैकादशरुद्रमौलीनस्तं यतो यान्ति कलाः किमस्य ? / प्रविश्य शेषास्तु भवन्ति पञ्च पञ्चेषुतूणीमिषवोऽर्द्धचन्द्राः ? // 113 / / एकेति / अस्तं यतो गच्छतोऽस्य चन्द्रस्यकादश कला एकादशानां रुद्राणां मौलीन् प्रति यान्ति किल गच्छन्तीव / शेषाः पञ्च कलास्तु पुनः पञ्चेषोः कामस्य तूणीमल्पमिषुधिं प्रविश्यार्द्धचन्द्राकारत्वाद चन्द्राख्या इषवो भवन्ति / विनाशसमये. ऽप्ययं परापकारनिरत इति ध्वन्यते / तूणीम् , अल्पत्वविवक्षया स्त्रीत्वे गौरादित्वा. न्डीष , 'अर्धचन्द्र'शब्दो रूढः॥ 113 // ___ अस्त होते हुए इस ( चन्द्रमा) की ग्यारह कलाएँ ग्यारह शिवजीके मस्तकोंमें प्रविष्ट होती है क्या ? तथा ( सोलह चन्द्र-कलाओं में-से ) शेष पांच चन्द्र-कलाएँ पञ्चवाण ( पांच बाणवाले-कामदेव ) के छोटे तरकसमें घुसकर अर्द्धचन्द्ररूप बाण होती हैं / [इस प्रकार यह चन्द्रमा सर्वदा परापकारमें ही निरत रहता है। रुद्रके 11 नाम ये हैं-'अज 1, एकपाद् 2, अहिबध्न 3, पिनाकी 4, अपराजित 5, त्र्यम्बक 6, महेश्वर 7, वृषाकपि 8, शम्भु.९, हरण 10 और ईश्वर 11 / रुद्र के अन्य 11 नामोंके भेद अमरकोषके मत्कृत 'मणिप्रभा' नामक अनुवादके 'रुद्र (1 / 1 / 10)' शब्दके परिशिष्टमें देखना चाहिये ] // 113 // निरन्तरत्वेन विधाय तन्वि ! तारासहस्राणि यदि क्रियेत / सुधांशुरन्यः स कलङ्कमुक्तस्तदा त्वदास्यश्रियमाश्रयेत // 114 // निरन्तरेति / हे तन्वि ! ताराणां नक्षत्राणां सहस्राणि निरन्तरत्वेनान्योन्य. संबन्धितया विधायकीकृत्य यदि अन्यः सुधांशुः क्रियेत निर्मायेत तदा तर्हिस चन्द्र स्ताराणामकलङ्करवात्तन्मयस्वास्कलङ्केन मुक्तः सन् स्वदास्यस्य श्रियं शोभामाश्रयेत / क्रियातिपत्तेरविवक्षितत्वाल्लङभावः // 114 // ___ हे तन्वि ! यदि हजारों ताराओंको एकत्र रखकर सम्मिलित कर दें तो कलङ्करहित वह दूसरा चन्द्रमा तुम्हारे मुख की शोभाको प्राप्त करे / [ ऐसा करना अशक्य होनेसे तुम्हारे मुखकी शोभाको यह वर्तमान चन्द्रमा कदापि नहीं पा सकता] / / 114 / / यत्पद्ममादित्सु तवाननीयां कुरङ्गालक्ष्मा च मृगाक्षि ! लक्ष्मीम् / एकार्थलिप्साकृत एष शङ्के शशाङ्कपङ्केरुहयोर्विरोधः / / 115 // यदिति / हे मृगाक्षि ! यत्पनं तवाननीयां मुखसंबन्धिनी लक्ष्मीमादिसु प्रहीतु. कामम्, कुरङ्गालचमा चन्द्रश्च तव मुखशोभां ग्रहीतुकामः, तयोः शशाङ्कपङ्केरुहयोरेष विरोधस्वन्मुखशोभालक्षण एकोऽर्थस्तस्य लिप्साकृतः प्राप्तिवान्छानिमित्त एवे. स्यहं शङ्के। एकद्रव्याभिलाषित्वेन विरोधः सुप्रसिद्धः। चन्द्रपद्मयोरपि विरोधः प्रसिद्ध एव / चन्द्रपद्माभ्यां सकाशाते मुखमधिकमिति भावः। आदित्सु, चन्द्रपचे लिङ्गविपरिणामः लघमी, 'न लोका-'इति षष्ठीनिषेधः // 115 // हे मगनयनि ! जिस कारणसे कमल तथा चन्द्रमा तुम्हारे मुखकी शोभाको पाना

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