Book Title: Naishadh Mahakavyam Uttararddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 834
________________ द्वाविंशः सर्गः। . 1531 (शीतल तथा श्वेतवर्ण) हो गया है ऐसा मैं विशेषरूपसे मानती हूँ, क्योंकि दिनमें चन्द्रमा विद्यमान रइनेपर भी उन ( कैरवों ) के मुखको बन्द किये (अविकसित) रहनेपर यह संसार वैसा ( दूधके समान शीतल एवं श्वेत ) नहीं शोमता है। (इस कारण कुमुदोंकी विकास दीप्तिसे ही यह संसार दुग्धवत् शीतल एवं श्वेतवर्ण हो रहा है)। [ दूधके समान ठण्डी तथा स्वच्छ यह चांदनी है ] // 61 // मृत्युञ्जयस्यैष वसञ्जटायां न क्षीयते तद्भयदूरमृत्युः / न वद्धते च स्वसुधाप्तजीवनग्मुण्डराहूद्भवभीरतीव || 62 / / मृत्युमिति / मृत्युंजयस्य मृत्यु जितवतः शिवस्य जटायां वसन्नेष चन्द्रः षोड. शांशभूतो न दीयते नाल्पपरिमाणा भवति, कलामात्रस्वरूपेणैव तत्र सदा वसंस्त. तोऽपि न्यूनपरिमाणो न भवतीत्यर्थः / अथ च,-न क्षीयते न म्रियते यस्मात् , तस्मान्मृत्युंजयात्सकाशाद्येन दूरो मृत्युर्मरणहेतुर्देवता यस्य सः मृत्युंजयजटाजूट. निवासान्मृत्युना स्पष्टुमपि न शक्यते तस्मान्न क्षीयतेऽयमित्यर्थः; तर्हि तत्र वसन्व. ईते किमिति नेत्याशङ्कयाह-वर्द्धते च न, उपचितोऽपि न भवतीत्यर्थः / यतःस्वस्य सुधया आठो जीवश्चैतन्यं यस्तानि जो मुण्डानि शिरोमालायाः शिरस्कपा. लानि तान्येव राहवस्तेभ्य उद्भवा समुत्पन्ना भीर्यस्य / कथम् ? अतीव, नितरां भीत इत्यर्थः / सजीवमुण्डेषु बहवो राहव एवैते इति धिया भिया न वर्धते / भीतो हि सौख्याभावास्कृशतर एव भवति / अथ च,-पूर्णस्य राहोः सकाशाद्भयम् / अतः कारणद्वयान्न क्षीयते, न च वद्धते इत्येककल एव शिवशिरश्चन्द्र इत्यर्थः / एतेन चन्द्रस्य षोडशी कला वर्णिता / शिवशिरसि वर्तमानस्वादस्यमाहात्यमपि वर्णितम् / मृत्युंजयेति, 'संज्ञायां भृतृवृजि--' इति खश , 'अद्विषत्-' इति मुम् // 62 // मृत्युञ्जय ( मृत्युको जीतनेवाला, पक्षा० --शिवजी ) की जटामें निवास करता हुआ ( अतः ) उस ( मृत्युञ्जय ) से दूर मृत्युवाला ( मृत्युञ्जयके मयसे मृत्यु जिससे दूर ही रहती है, ऐसा ) यह चन्द्रमा क्षीण नहीं होता अर्थात् मरता नहीं है ( पक्षा०-सोलहवीं कलासे सदा वर्तमान रहता है ), और अपनी ( चन्द्र-सम्बन्धी ) अमृतसे जीवित हुए ( शिवजीकी) मालाके मुण्डरूप राहुओंसे अत्यन्त डरा हुआ यह चन्द्रमा ( सोलहवीं कलासे अधिक) बढ़ता भी नहीं है। [शिणजीको जटामें चन्द्रमा षोडशांश (एक ) कलासे सर्वदा निवास करता है, वह उक्त कारणद्वयसे न तो घटता है और न बढ़ता ही है। लोकमें भी अपने विजेताके भयसे परानित व्यक्ति दूर ही रहता है, अत एव मृत्युञ्जय शिवजीके भयसे मृत्युका दूर रहना और उससे चन्द्रमाका निर्भय होकर क्षीण नहीं होना उचित ही है। जब सम्पूर्ण चन्द्रको यह ही राहु निगल जाता ( नष्ट कर देता) है, तब षोडशांश होनेसे अतिशय क्षीण शिवजटास्थित चन्द्रका शिवमाला स्थित अनेक मुण्डरूप राहुसे अतिशय 66 नै० उ०

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