Book Title: Naishadh Mahakavyam Uttararddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1555 आयी हुई (रोहिणी ) ताराके समान स्मितके किरण-समूहको फैला दिया। [नलके वैसा कहने पर दमयन्तीने मुस्कुरा दिया। बांससे मोती उत्पन्न होनेका कारण 'भास्ववंशकरीरता...... ( 12 / 10 ) की टिप्पणी में देखें ] // 103 // स्ववर्णना न स्वयमहतीति नियुज्य मां त्वन्मुखमिन्दुरूपम् | स्थानेऽत्युदास्ते शशिनः प्रशस्तौ घरातुरासाहमिति स्म साऽऽह।।१०४॥ स्वेति / सा धरातुरासाहं भूमीन्द्रमित्याह स्म / इति किम् ? हे प्रिय ! इन्दुरूपं स्वन्मुखमिति हेतोश्चन्द्ररूपात्मस्तुतौ मां नियुज्याज्ञाप्य शशिनः प्रशस्तौ वर्णनविष. येऽत्युदास्तेऽतितरामुदासीनं भवति / एतत्स्थाने युक्तम् / हेतुमेवाह-इति किम् ? 'सतामेतदकर्तव्यं परनिन्दाऽऽत्मनः स्तुतिः' इत्यादिवचनात्स्वयमात्मनैव स्वस्थ वर्णना स्तुति हंति न युक्तेति / इयत्पर्यन्तं मया चन्द्रो वर्णितः, इदानीं त्वया वर्णनीयः, तुष्णीभावो वा युक्त इत्याशयेन भैमी चन्द्रस्तुती तं सोस्प्रासं प्रावर्तयदिति भावः / 'तुरासाहम्' इत्यत्र तृतीयसर्गे 'धरातुरासाहि-' इत्येतच्छलोकस्था शा ज्ञातव्या, तत्रोत्तरम्-इन्दुरूपं स्वन्मुखं, चन्द्ररूपात्मस्तुती मां नियुज्य शशिनः प्रशस्तौ अत्युदास्ते / साहं धरावदतुराऽनुत्तालाऽवेगा वा, पृथ्वीवद्गम्भीरेत्यर्थः। अर्थात्तमाह स्मेति ज्ञातव्यम् // 104 // ____ 'अपनी प्रशंसा स्वयं करना उचित नहीं है। इस कारणसे चन्द्ररूप आपका मुख मुझे नियुक्तकर ( 22 / 58-60) चन्द्रमाके वर्णन करनेसे स्वयं उदासीन हो रहा है', ऐसा उस (दमयन्ती) ने राजा नलसे कहा / ( अथवा-......'उदासीन हो रहा है, वह मैं पृथ्वीके समान गम्भीर हूं' ऐसा उसने कहा ) / / 104 / / तयेरितः प्राणसमः सुमुख्या गिरं परीहासरसोत्किरां सः / भूलोकसारः स्मितवाक् तुषारभानु भणिष्यन् सुभगां बभाण / / 10 / / तयेति / स भूलोके सारः श्रेष्ठतमो नलः स्मितवाक तुषारभानु चन्द्रं भणिष्यन् वर्णयिष्यन् सन् सुभगां सौभाग्यवतीं भैमी बभाण / किंभूत ? तथा सुमुख्या भैम्या परिहासरसस्योकिरामुद्भावयित्रीं गिरमीरित उक्तः / तथा-प्राणसमोऽतिप्रेयान् / तया चन्द्रवर्णने ईरितः सन् परिहासरसोस्किरां गिरं सुभगां यथा तथा बभाणेति वा। उस्किराम् , 'इगुपध-' इति कः / पूर्वेण षष्ठासमासः / भणिष्यन् , हेतौ लुटः शता॥ 105 // भूलोकश्रेष्ठ तथा.( दमयन्तीके ) प्राणतुल्य वे (नल) सुमुखी (दमयन्ती) के ऐसा ( 22 / 104 ) कहनेपर हँसते तथा आगे चन्द्रका वर्णन करते हुए सुन्दरी ( दमयन्ती ) से बोले // 105 // तवानने जातचरों निपीय गीति तदाकर्णनलोलुपोऽयम् / हातुं न जातु स्पृहयत्यवैमि विधुं मृगस्त्वद्वदनभ्रमेण // 106 / /

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