________________ * सप्तदर्शः सर्गः / समान मूर्ख) तुम श्रद्धा करते हो, तब मत्स्य (रूपधारी विष्णु, पक्षा०-मछली) के उपदेश्य अर्थात् शिष्य ( अत एव मत्स्यरूप = मछलीरूप ) तुमलोगों के साथ कौन भाषण करे ? अर्थात् कोई नहीं। [ निषाद-कन्याके साथ व्यभिचार करनेपर उत्पन्न होनेसे तथा भ्रातृपत्नीमें पुत्रोत्पादन करनेके कारण स्वयं भी व्यभिचारी होनेसे व्यासके वचनरूप महाभारतादि ग्रन्थ भी अश्रद्धेय हैं और मत्यरूपधारी विष्णुद्वारा प्रतिपादित मत्स्य पुराणके उपदेशाई होनेसे मत्स्यप्राय अर्थात् अतिशय तुच्छ तुमलोगों के साथ कौन बातचीत करे ? एक तो मत्स्य ( मछली ) ही जलचरोंमें हीन एवं तिर्यग्योनिमें उत्पन्न होनेसे बातचीत करनेके अयोग्य है, किन्तु तुमलोग तो उस ( मत्स्य-मत्स्यरूपधारी विष्णु ) के शिष्य हो, अत एव अतिनीच तुमलोगोंके साथ बातचीत भी कौन करे ? अर्थात् तुमलोग सम्माषणके भी योग्य नहीं हो / अथवा-श्लोकके पूर्वाद्धसे व्यासोक्त महाभारतादि पुराणोंकी निन्दा करनेके बाद उत्तराद्धंसे मनु आदि स्मृतिकारोंकी ही निन्दा करते हुए कह रहा है किमत्स्य ( मत्स्यरूपधारी विष्णु ) के भी उपदेश्य अर्थात् अनुशासनीय तुमलोगों ( मनु आदि स्मृतिकारों) के साथ बातचीत भी कौन करे ? / 'मनु'के उपदेश्य होनेसे जिस प्रकार सभी 'मानव' कहलाते हैं, उसी प्रकार 'मत्स्य' (मत्स्यरूपधारी विष्णु ) के शासित उपदेश्य होनेसे यहांपर सबको 'मत्स्य' कहकर उनका उपहास किया गया है ] // 63 // पण्डितः पाण्डवानां स व्यासश्चाटुपटुः कविः / निनिन्द तेषु निन्दत्सु स्तुवत्सु स्तुतवान्न किम् || 64 // पुनर्व्यासमेव विडम्बयति-पण्डित इत्यादि / पाण्डवानां युधिष्ठिरादीनां, चाटु पटुः मिथ्यास्तुतिवादकुशलः, कविः उत्प्रेक्षितार्थवर्णयिता, पण्डितः पाण्डितमानी, स भवतामाप्ततम इत्यर्थः / व्यासः महाभारतकारः, अपि इति शेषः / तेषु पाण्डवेषु, निन्दस्सु दुर्योधनादीन् आक्षिपत्सु, न निनिन्द किम् ? न परिववाद किम् ? दुर्योध. नादीनिति शेषः / तेषु पाण्डवेषु, स्तुवत्सु कृष्णादीन् स्तुतिं कुर्वत्सु सत्सु, न स्तुतवान् किम् ? स्तुतिं न कृतवान् किम् ? कृष्णादीनिति शेषः / तेषां निन्द्यान् निन्दन् स्तुत्यांश्च स्तुवन व्यासोऽपि पाण्डवपक्षपाती . कश्चित् कविन आप्ततमः यथार्थवादीति भावः // 64 // - पाण्डवोंकी चापलूसीमें चतुर, कवि एवं पण्डित व्यासने उन (पाण्डवों) के ( दुर्योधनादि की ) निन्दा करते रहनेपर ( उन दुर्योधनादिकी) निन्दा नहीं की है क्या ? ( कृष्णादिकी) प्रशंसा करते रहनेपर ( उन कृष्णादिकी) प्रशंसा नहीं की है क्या ? / [ महाभारत आदि के रचयिता व्यास बुद्धिमान् एवं स्वामी पाण्डवोंकी चापलूसी करने में चतुर कवि था, अतः पाण्डवोंने दुर्योधनादिकी निन्दा तथा कृष्णादिकी स्तुति की, तदनुसार ही स्वामी पाण्डवोंको प्रसन्न करनेकी नीति अपनानेवाले चाटुकारी व्यासने भी महाभारतादिमें दुर्योधनादिको निन्दा तथा कृष्णादिकी स्तुति ( प्रशंसा) की है; अतः व्यास स्वयं