________________ षोडशः सर्गः। 655 उस ( राजा 'भीम' ) के लिए शिवजीके साथ सम्भोगमें आसक्त उस (दुर्गा) ने दिया था। [जिस खड्गसे दुर्गाने महिषासुरको मारा था, उसे सम्भोग में आसक्त दुर्गा (पार्वती) ने असुरोंके अभावसे तथा सम्भोगकालमें खड्ग ग्रहण करना अनावश्यक होनेसे पतिके नामवाले राजा 'भीम' के लिए दे दिया था; उसी चमकते हुए खडगको उस (राजा भीम ) ने वर ( दुल्हा नल ) के लिए दिया / राजा भीमने नलके लिए चमकते हुए खड्गको दिया]। अधारि यः प्राङ्महिषासुरद्विषा कृपाणमस्मै तमदत्त कूकुदः / अहायि तस्या हि धवार्द्धमजिना स दक्षिणार्द्धन परोङ्गदारणः / / 19 / / अधारीति / यः कृपाणः, महिषासुरद्विषा दुर्गया, प्राक पूर्वम् , अधारि वृतः, तं कृपाणम् असिं, कूकुः कन्या, 'फूकुरित्युच्यते कन्या' इति स्मरणात् / तां ददातीति कूकुदः कन्याप्रदः भीमः, 'सत्कृत्यालङ्कृतां कन्यां यो ददाति स कूकुदः' इत्यमरः / अस्मै नलाय, अदत्त दत्तवान् / दुर्गायाः कृपाणस्य भीमहस्तगतत्वे कारणान्तरमाहहि यतः, धवस्य प्रियस्य, भीमापराख्यशम्भोरिति यावत् , अर्द्ध वामाई, मज्जति प्रविशतीति तन्मज्जिना अर्द्धनारीश्वरत्वात् प्रियाङ्गिप्रविष्टेन, तस्याःदुर्गायाः सम्बधिना, दक्षिणार्द्धन दक्षिणाङ्गेन का, परेषां संसर्गिणामन्येषाम् , अङ्गदारणः गात्र. विदारकः, स कृपाणः, अहायि अत्याजि, खड्गसहितदक्षिणार्डेन स्वामिशरीरप्रवेशे स्वामिनोऽङ्गविदारणं स्यादिति धिया स परित्यक्तः इति भावः / हातेः कर्मणि लुङ, चिणि युगागमः // 19 // ___ महिषासुरवैरिणी ( दुर्गा अर्थात् पार्वती ) ने पहले जिस खड्गको धारण किया था, उसको वस्त्रा-भूषण आदिसे अलकृतकर कन्याका दान करनेवाले (राजा भीम) ने इस ( जामाता नल ) के लिए दिया; क्योंकि पति (शिवजी) के आधे शरीरमें प्रविष्ट उस (पार्वती) के दक्षिणार्द्ध (आधा दहना अङ्ग) ने दूसरे ( पक्षा०-शत्रुके शरीरको विदारण करनेवाले ) उस खड्गको छोड़ दिया (पाठा०-उस 'भीम' राजाके लिए दिया) था। [पार्वती महिषासुरको मारते समय शिवजीसे पृथक् पूर्ण शरीरवाली थी, किन्तु जब वह अपने पति शिवजीके वामार्द्ध भागमें प्रविष्ट करने लगी तो सोचा कि हमारे दहने हाथमें स्थित तथा दूसरेके शरीरको विदीर्ण करनेवाला यह खड्ग पतिके वामार्द्ध मागमें मेरे प्रविष्ट होनेपर उनके शरीरको विदीर्ण कर देगा, अत एव उस खड्गको छोड़ दिया (पाठा०राजा भीमके लिए दे दिया था, उसी दुर्गाके दिये हुए खड्गको आज कन्यादानकर्ता राजा भीमने जामाता इस नलके लिए दिया)] // 19 / / उवाह यः सान्द्रतराङ्ककाननः स्वशौर्यसूर्योदयपर्वतव्रतम् | 1. 'अवापि' इति पाठेऽनर्थो न / तस्या दक्षिणार्डेन तस्मै यस्माददायीत्यर्थः / 'अयं पाठः साधीयान्' इति 'प्रकाशः' / 2. 'पराई-' इति काचिरकं पाठान्तरम् / 60 नै० उ०