Book Title: Naishadh Mahakavyam Uttararddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office
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________________ 1530 नैषधमहाकाव्यम् / सकाशाज्जलं कियद्गृह्णातीत्यहं शङ्के मन्ये-इति भैमी प्रियमवदत् / उदिते चन्द्रे सागरपूरो वृद्धि प्राप्तः, चन्द्रकान्ताः स्रवन्ति, चक्रवाकी भृशं रोदितीति भावः। दुहिर्द्विकर्मा // 59 // __ यह ( चन्द्रमा ) समुद्र के जल प्रवाहको बढ़ाने के लिए कुछ जल चन्द्रकान्तमणिसे और कुछ जलप्रिय ( चकवे ) के विरहसे शोकात चकई के नेत्रद्वयसे दुहता ( प्राप्त करता-लेता) है, यह मैं शङ्का करती हूं। [ समुद्र का जल-प्रवाह बढ़ने लगा, चन्द्रकान्तमणि पिघलने लगा तथा चकवाके विरहसे चकई रोने लगी ] // 59 // ज्योत्स्नामयं रात्रिकलिन्दकन्यापूरानुकारेपसृतेऽन्धकारे। परिस्फुरनिर्मलदीप्तिदीपं व्यक्तायते सैकतमन्तरीपम् / / 60 // ज्योत्स्नेति / हे प्राणेश ! तमोवसरेऽतिश्यामा रात्रिरेव कलिन्दकन्या यमुना तस्याः पूर आगन्तुकातिनीलजलप्रवाहस्तदनुकारे तत्सहशे तद्वदतिकृष्णेऽन्धकारेऽप. मृते गते सति परिस्फुरन्ती निर्मला दीप्तिर्यस्य / प्रकाशमानश्चासौ धवलद्युतिश्च ताहशो वा यश्चन्द्रः स एव दीपो यत्र तादृशं चन्द्रिकारूपं सैकतं धवलतरवालुकामयं रात्रियमुनाया एव जलमध्यस्थितमन्तरीपं द्वीपं व्यक्तायते स्फुटमिव भवति प्रकटं दृश्यते / पूरावसरेऽस्फुटमपीदानीं स्फुटीभवतीति शङ्के / चन्द्रचन्द्रिकया सकलं धवलीकृतमिति भावः / व्यस्तायते व्यक्तमिव भवति, 'कर्तुः क्या-' इति क्यङ / अव्यक्तं व्यक्तं भवतीत्यर्थः / सैकतम् , 'सिकताशकराभ्यां च' इत्यस्त्यर्थेऽण // 60 // रात्रिरूपिणी यमुनाके प्रवाहके समान (कृष्णवर्ण) अन्धकारके (चन्द्रोदय होने के कारण ) दूर होनेपर प्रकाशमान निर्मल कान्तिवाला ( चन्द्ररूप ) दीप है जिसका ऐसा ( यमुना-सम्बन्धी ) बालूका अन्तरीप ( जलमध्यगत शुष्क स्थान-टा) स्पष्ट-सा हो रहा है / [ यमुनाके जलके बीच में स्थित जो बालुकामय भूमाग अन्धकारके कारण नहीं ज्ञात होता था, वह अब चांदनीके प्रकाशसे ज्ञात होने लगा ] // 60 // हासत्विषैवाखिलकैरवाणां विश्वं विशङ्केऽजनि दुग्धमुग्धम् / यतो दिवा बद्धमुखेषु तेषु स्थितेऽपि चन्द्रे न तथा चकास्ति // 61 // हासेति / अखिलकैरवाणां सकलकुमुदानां हासविषैव विकासदीप्तथैव विश्वं सकलं जगत् दुग्धवत् मुग्धं धवलं शीतलं चानि जातम् , नतु चन्द्रेणेत्यहं विशङ्के विशेषेण मन्ये / यतो हेतोर्दिवा तेषु सकलकरवेषु बद्धमुखेषु संकुचितेष्वविकस्वरेषु च सत्सु चन्द्रे स्थिते विद्यमानेऽपि सकलकुमुद विकासाभावात्सकलं जगत्तथा रात्राविव शीतलधवलतया न चकास्ति / तस्मादिदं जगत् कुमदहासविषैव शीतलं धवलं च कृतम्, नतु चन्द्रणेत्यर्थः / कुमदवद् दुग्धवच्च शीतला धवला चन्द्रचन्द्रिकास्तीति भावः // 6 // सम्पूर्ण कुमुर्दोके हास ( विकसित होने ) की कान्तिसे ही संसार दूधके समान मनोहर

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