________________ त्रयोदशः सर्गः। 825 नैषधे नलसाम्यमेव मम चेतसः परमप्रीतिसम्पादकं भवति, न त्वत्र सत्यत्वं प्रयोजकं, यतः सर्वे एव समानरूपा इति भावः / अनुप्रासानां तादृशत्वे दृष्टान्तस्तु अल. कारग्रन्थे स्फुट एव, अथवा अस्यैव श्लोकस्य चरमचरणे विलस-विलासः प्रास-भास इति शब्दचतुष्टयेऽपि सम्भवति, अथवा प्रथम-शब्दप्रयोगानन्तरं चरम-शब्दे प्रयुक्ते एव तत्रानुप्रास; सम्भवति; यथा वा अत्रैवानुप्रासभासां विलास इत्यत्र सर्वसकाराश्रयत्वे अनुप्रासस्यान्तिमसकारे स्फुरणम् , एवमन्तिमबुद्धौ विपरिवर्त्तमानत्वान्नलत्वाभिमानमात्रम् , एतावता अयमेवेति निश्चयो युक्त इति भावः / अत्र दृष्टान्तालङ्कारः // 53 // अन्य ( प्रथम चार ) नलों के समान रूपवाला शेष (पांचवां ) यह नल मेरे चित्तको किस कारण अमृतोंसे स्नान करा रहा है ? अर्थात् इन प्रथम चारोंको छोड़कर यह अन्तिम नल अमृतस्नपन कराते हुएके समान मुझे क्यों रुचिकर हो रहा है ? इस कारण यही सत्य नल प्रतीत होता है / अथवा-'प्रथम तथा चरम' ( पहले तथा अन्तवाले ) शब्दों के अक्षरों में समानता रहने पर भी 'चरम' (अन्तवाले ) शब्दमें अनुप्रास (छेकानुप्रास, वृत्त्यनुप्रास, लाटानुप्रास आदि अलङ्कार ) चमत्कार स्फुरित होता है। [ पहले तथा अन्तवाले हाब्दोंके अक्षर समान रहने पर भी जिस प्रकार अन्तवाले शब्दमें ही अनुप्रासका चमत्कार रहता है, अथवा-इस श्लोकके ही 'प्रथम' तथा 'चरम' शब्दोमें-से अन्तवाले / 'चरम' शब्दोंमें ही अनुप्रासका चमत्कार जिस प्रकार स्फुरित होता है पहलेवाले 'प्रथम' शब्दमें नहीं, अथवा-प्रथम तथा चरम ( पहले तथा अन्तवाले ) चरणोंमें समानवर्ण होने पर भी अन्तवाले चतुर्थ चरणमें ही 'प्रास, भास, विलास'में अनुपासका चमत्कार निस प्रकार स्फुरित होता है; उसी प्रकार इन पांचों नलोंके तुल्यरूप होनेपर भी इस पांचवां नल ही मेरे चित्तको चमत्कृत करता है अतः इस चमत्कारमात्रसे इसे ही वास्तविक नल नहीं निश्चित किया जा सकता।] // 53 // इति मनसि विकल्पानुद्यतःसन्त्यजन्ती कचिदपि दमयन्ती निर्णय नाससाद / मुखमथ परितापास्कन्दितानन्दमस्या मिहिरविरचितावस्कन्दमिन्दुं निनिन्द इतीति / इति मनसि उद्यतः उत्पद्यमानान् , उत्पूर्वादिणः शत्रन्ताच्छसि पुंसि रूपम्, विकल्पान् विचारान्, सन्त्यजन्ती दोषोद्भावनद्वारा प्रतिषेधन्ती, दमयन्ती क्वचिदपि पञ्चसु एकत्रापि, निर्णयं नलनिश्चयं, न आससाद ! अथ नलनिश्चयभावानन्तरं, परितापेन आस्कन्दितानन्दं निरस्तानन्दम्, अस्याः दमयन्त्याः, मुखं मिहिरेण सवित्रा, विरचितावस्कन्दं कृततिरस्कारम्, इन्दुं निनिन्द तद्वद्दीनम् अभूदित्यर्थः। एषा च परिताप-दैन्य-शून्यत्वादिकृञ्चिन्ता अनुभावो ज्ञेयः; तदुक्तम्-'इष्टानधिगमाद् ध्यानं चिन्ता-शन्यत्व-तापकृत्' इति // 54 // इस प्रकार ( 13 / 41-53 ) मनमें उठते हुए विकल्पों ( विविध सन्देहों ) को छोड़ती