________________ 1056 नैषधमहाकाव्यम् / अङ्गविकलान् , हेतून् आहुः इति पूर्ववाक्येनान्वयः। कार्योपयोगिनां तत्तद्वस्तूनामभावादेव फलं माभूदिति गृहस्थस्य दोषं प्रकटयन्तीति भावः // 53 // सन्देहयुक्त (पुत्रलामादिरूप इष्टकी सिद्धि होना या नहीं होना-रूप) दो कार्योंमें एक (सिद्धि या असिद्धि ) अवश्य ही होती है, उन दोनों में-से इष्टसिद्धि (पुत्रादिलाम ) होनेपर धूर्त ( मन्त्रजपादि करनेवाले ब्राह्मण आदि ) अपने मन्त्रको कारण ( मेरे मन्त्रजपादिके प्रमावसे तुम्हें पुत्रलाभादिरूप मनोरथ सिद्धि हुई है ऐसा ) कहते हैं, अन्यथा (पुत्रलामादि इष्टसिद्धि नहीं होनेपर ( मन्त्रोंको ) असाङ्ग ( अङ्गहीन-अमुक वस्तु के अमावसे तुम्हारी मनोरथसिद्धि नहीं हुई इत्यादि रूपसे मन्त्रोंकी अपरिपूर्णता ) बतलाते हैं ( यह बड़ी भारी धूर्तता है ) // 53 // जनेन जानताऽस्मीति कायं नायं त्वमित्यसौ। त्याज्यते ग्राह्यते चान्यदहो! श्रुत्याऽतिधूतया / / 54 // इत्थं कर्मकाण्डं विडम्ब्याज्ञानकाण्डं विडम्बयति, जनेनेति / अतिधूर्तया अति. प्रतारिकया, श्रुत्या वेदेन, प्रयोजकका / कायं देहम , अस्मि अहम , इति जानता अवगच्छता, गौरोऽहं कृशोऽहमित्याद्यहं प्रत्ययविषयः देह एव, न तु तदतिरिक्तः कश्चिदिति देहमेवात्मानं मन्यमानेनेत्यर्थः / जनेन पुंसा, प्रयोज्येन / अयं कायः, स्वम् आत्मा, न, भवतीति शेषः, इति अस्माद्धेतोः, असी कायः, स्याज्यते हाप्यते, 'अहं'प्रत्ययविषयत्वेन कायः परित्याज्यते इत्यर्थः / अन्यत् अपरं, देहात् अन्यत् आत्म. लक्षणं वस्तु इत्यर्थः / ग्राह्यते स्वीकार्यते च, 'अहं' प्रत्ययविषयतयेति शेषः / तत्त्व. मसीत्यादिवाक्यः अङ्गीकार्यते च इत्यर्थः / इत्यहो आश्चर्यम् ! सत्यस्य असत्यकरणात् असत्यस्य सत्यकरणाच आश्चर्यमेतत् // 54 // ( 'तत्त्वमसि', 'स वा एष महानज आत्मा' इत्यादि रूप ) अतिशय वञ्चक श्रुति, शरीरको 'मैं हूं' इस प्रकार जानते ( 'मैं मोटा हूं, मैं दुर्बल हूं' इत्यादि प्रत्ययसे शरीरको ही आत्मा मानते ) हुए व्यक्तिके द्वारा 'तुम यह (शरीर) नहीं हो इस प्रकार ( देहमें आत्मविषयक शानका ) त्याग कराती है तथा दूसरे ( शरीराभिन्न स्वानुभवविरुद्ध अप्रत्यक्ष तथा प्रमाणबहिर्भूत 'आत्मा' नामकी किसी अनिर्वचनीय वस्तु ) का ही ग्रहण कराती है, अहो ! आश्चर्य ( या-ऐसी धूर्ततापर खेद ) है। [इसका यह आशय है कि यद्यपि लोग 'मैं दुर्बल हूं, मैं मोटा हूँ' इत्यादि ज्ञान शरीरविषयक होनेसे शरीरको ही आत्मा जानते हैं, तथापि उक्त वेदवाक्य शरीरको आत्मा होनेका खण्डन कर तद्विलक्षण अप्रत्यक्ष एवं वचनागोचर किसी वस्तुको 'आत्मा' कहते हैं, अत एव अनुभवविरुद्ध होनेसे ये वेदवाक्य अत्यन्त धूर्त एवं अप्रामाणिक हैं ] // 54 // 1. इमौ (1753-54) श्लोको 'प्रकाश' कृता विपर्यासेन व्याख्याती।