Book Title: Naishadh Mahakavyam Uttararddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 866
________________ द्वाविंशः सर्गः। 1563 सितानि, मकरन्दपूर्णानि च जातानीति भावः / विवाहे उभयोः पाणिमेलनं, पाणी दानजलाभिषेकोऽपि भवति // 122 // ___ तुम्हारी इस क्रीड़ानदीमें कुमुदिनीके पुष्परूपी हाथको चन्द्रमाकी किरण (पक्षा०हाथ ) के साथ मिलने ( संयुक्त होने ) पर मधु (पुष्प मकरन्द ) के छलवाले अर्थात् पुष्प-मकरन्दरूप दानजलका स्याग इन दोनों (चन्द्रमा तथा कुमुदिनी) की मानो विवाह लीलाको कह रहा है / [ वधू-वरके हाथोंके संयुक्त होनेपर कन्यादानके जलका अभिषेक होना शास्त्रीय विधि है / कुमुदिनी चन्द्रकिरण-स्पर्शसे विकसित तथा मकरन्दसे पूर्ण हो गयी] // 122 // विकासिनीलायतपुष्पनेत्रा मृगीयमिन्दीवरिणी वनस्था / विलोकते कान्तमिहोपरिष्टान्मृगं तवैषाऽऽननचन्द्रभाजम् / / 123 // विकासीति / हे प्रिये ! इह तव केलिनद्यां वनस्था जलनिवासिनी; अथ चकाननस्था, तथा-विकासि नीलमायतं विस्तृतं पुष्पमेव नेत्रं यस्यास्तत्तत्यनेत्रा चेयं प्रत्यक्षहश्या इन्दीवरिणी, यस्मान्मृगी वनस्थस्वाद्विकासिनीलायतपुष्पनेत्ररवास हरिणी, तत्तस्मादिन्दीवरिणीरूपा मृगी, आननमिव यश्चन्द्रः सामर्थ्यावदाननतुल्यो यश्चन्द्रस्तद्भाजं तरस्थं कान्तं सुन्दरम् , अथ च-तुल्यजातीयं स्वप्रियं, मृगमुपरि. ष्टाद्विलोकते / विकसितकुसुमनेत्राणि ऊवं प्रसारितानि दृश्यन्ते तर्हि प्रायेण चन्द्रस्थमुपरि वर्तमानं निजभर्तारं मृगं (मृगी) पश्यतीत्यर्थः / त्वदाननमेव यश्चन्द्रस्तत्रस्थं चन्द्रत्वादनुमेयं मृगमुपरिष्टात्पश्यति / त्वं प्रासादोपरि वर्तसे, इयं चाधोदेशे वर्तते / 'न न' इति पदच्छेदं कृत्वा चन्द्रभाजं निजप्राणेशं मृगमुपरिष्टान्न पश्यतीति न, किन्तु पश्यत्येवेति वा व्याख्येयम् / वनस्था मृगी हि प्रसारितनीलायतनेत्रा सती स्वकान्तं मृगमितस्ततो विलोकयति / 'शशम्' इत्यपपाठः। मृगपर एव वा व्याख्येयः॥ 123 // (हे प्रिये ! तुम्हारी) इस क्रीडानदीमें जल ( पक्षा०-जङ्गल) में रहनेवाली तथा विकसित नीलवर्ण पुष्परूपी ( पक्षा०-पुष्पतुल्य ) विशाल नेत्रोंवाली यह नीलकमललता ( जिस कारणसे ) मृगी है, उस कारणसे यह (नीलकमललतारूपिणी मृगी) ऊपरमें (आकाशमें, पक्षा०-तुम्हारे उच्चतम सौधपर, तुम्हारे ) मुखके समान (पक्षा०-मुखरूपी) चन्द्रमामें रहनेवाले पति (पक्षा०-सुन्दर, कलङ्कात्मक ) मृगको मानो देख रही है। [ यहां विकसित नीलकमलपुष्पको विशाल तथा नीलवर्ण नेत्र, नीलकमललताको मृगी, क्रीडानदी के जलको जङ्गल, आकाशको सौध और दमयन्तीके मुखको मृग होनेकी कल्पना की गयी है / लोकमें भी अत्युन्नत स्थानपर स्थित व्यक्तिको नीचेवाला व्यक्ति ऊर्ध्वमुख होकर जैसे देखता है, वैसे ही नीलकमलरूपिणी मृगी तुम्हारे मुखतुल्य चन्द्रमामें स्थित अपने पति मृगको मानो देख रही है ] // 123 // 18 नै० उ०

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