Book Title: Naishadh Mahakavyam Uttararddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

View full book text
Previous | Next

Page 885
________________ 1582 नैषधमहाकाव्यम् / पुष्पादिसामप्रया देवं पूजयति, कश्चित्परिचारकोऽपि तस्य भवति, एवमत्रापि / सर्वाणि नक्षत्राण्युदितानि, कामोद्दीपकश्चन्द्रोऽप्युदितः, सुरतान्तरायकारी निषिद्धः संध्यासमयोऽतिक्रान्तः, तस्मात्काममुपास्स्व, सुरतेच्छुरस्मीति भावः / पञ्चबाणम्' इत्यनेन कामस्यातिपीडाकारिवं सूच्यते / 'जातिर्जातं च सामान्यम्' इत्यभिधानात् 'जात' शब्दः सामान्यवाची पुष्पमात्रे पर्यवस्यति / तिलकितेति तारकादिः मतुः बन्तात् 'तत्करोति-' (ग० सू० 204) इति ण्यन्तानिष्ठा // 147 // (हे प्रियतमे दमयन्ती !, लाल, पीला, श्वेत, कृष्ण आदि अनेक वर्गौवाले ) तारारूफ पुष्प-समूह उपस्थित है ( लाकर रखा हुआ है ), यह व्यक्ति तुम्हारा परिचारक (दास) बने ( देवपूजा करनेवाली तुम्हारी पूजासामग्रियों को लाने आदिमें में सहायक बनूं)। तिलों के तिलकसे युक्त पर्पट ( चावल के चूनका बना हुआ मध्यमें तिलयुक्त गोलाकार भं ज्यपदार्थ-विशेष, जिसे 'तिलकुट' कहते हैं ) के समान कान्तिवाले इस चन्द्रमाको ( कामदेवके लिए ) नैवेद्य समर्पण करो और इस प्रकार कामदेवकी पूजा करो। [ पूजामें पुष्प, नैवेद्य. तथा एक सहायक की आवश्यकता होती है, अत एव तारारूप पुष्पसमूह, चन्द्ररूप नैवेद्य मैं सहायक परिचारकरूपमें उपस्थित हूँ, इस प्रकार पूजाकी सब सामग्रियोंके उपस्थित होनेसे तुम मुझ परिचारकको आदेश दो, जिससे मैं पञ्चबाण अर्थात् कामदेवकी पूजामें सहायक बनूं। चूंकि कामदेव 'पञ्चबाण' है, अतः उसकी यथावसर पूजा नहीं करने से वह उन बाणोंद्वारा दण्ड भी देगा, यह 'पञ्चबाण' पदसे ध्वनित होता है। उद्दीपक चन्द्रमाका वर्णन करनेसे रमणेच्छुक नलने रमण करने के लिए दमयन्तीसे ऐसा कहा ] // 147 / / इदानी काव्यसमाप्तिं चिकीर्षुः श्रीहर्षो नायकमुखेनाशिषमाशास्तेस्वर्भानुप्रतिवारपारणमिल हन्तौघयन्त्रोद्भव श्वभ्रालीपतयालुदीधितिसुधासारस्तुषारद्युतिः / पुष्पेष्वासनतत्प्रियापरिणयानन्दाभिषेकोत्सवे देवः प्राप्तसहस्रधार कलशश्रीरस्तु नस्तुष्टये / / 148 // स्वर्भानुरिति / हे प्रिये ! देवः प्रकाशमानस्तुषारद्युतिर्हिमकरः, अथ चहिमकर एव देवः, वर्णनां पूजां च कुर्वतां नोऽस्मदादीनाम, आवयोर्वा तुष्टये परमा. नन्दायास्तु / किभूत: ? स्वर्भानो राहोः प्रतिवारं पौनःपुन्येन यत्पारणं चन्द्रस्यैव गिलनं तेन तत्र वा मिलन संलग्नो यो दन्तौघरतद्पं यन्त्रं छिद्रकरण साधनं तस्मा. दुद्भवो यस्याः सा श्वभ्राक्षीदन्तदशनवृतविवरपरम्परा तया तस्याः सकाशाद्वा पत. यालुः पतन शीला दीधिति सुधा किरणामृतं तद्रपः, दीधिति सुधाया वा सारः श्रेष्ठ भागो यस्य, दीधितिसुधाया आसारो धारासंपातो दीधितिसुधारूपो वा आसारो यस्य सः / अत एव-पुष्पमेवेष्वासनं धनुर्यस्य तस्य कामस्य तत्प्रियाया रस्याश्चानयोर्यः परिण.यो विवाहो लक्षणयां परस्परसंमेलनं तद्पो य आनन्दः संतोषस्तरसं.

Loading...

Page Navigation
1 ... 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900 901 902 903 904 905 906 907 908 909 910 911 912 913 914 915 916 917 918 919 920 921 922