Book Title: Naishadh Mahakavyam Uttararddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 854
________________ द्वाविंशः सर्गः। वर्षातपानावरणं चिराय काष्ठौघमालम्ब्य समुत्थितेषु / बालेषु ताराकवकेष्विहैकं विकस्वरीभूतमवैमि चन्द्रम् / / 96 / / वर्षेति / अहं बालेषु तनुषु सूचमरूपेष्वविकसितेषु चेह प्रत्यक्षदृश्येषु तारासु नक्षत्रेष्वेव कवकेषु छत्राकेषु मध्ये चिरकालोत्पन्नस्वाद्विकस्वरीभूतं विकसितमेकं छत्राकमेव चन्द्रममि मन्ये / किंभूतेषु ताराकवकेषु ? चिराय बहुकालं वर्षास्कृती तपे ग्रीष्मतौ च बर्षेषु जलवृष्टिषु आतपेषूष्णेषु च सत्सु अनावरणमनाच्छादितं काष्ठौधं दिक्समूहमेव दारुसमूहमालम्ब्य समुस्थितेषूत्पन्नेषु / वर्षाकाले ह्यनावृतेषु / जलस्तिमितेषु पश्चादुष्णतप्तेषु च काष्ठेषु सूचमस्थूलानि छत्राकाणि भवन्ति / तथा च तारा अल्पकवकानि, चन्द्रस्तु स्थूलकवकमिवेत्युत्प्रेक्षा // 96 // बरसात तथा धूप (ग्रीष्म ) ऋतुमें चिरकालतक बिना ढके हुए दिक्समूह ( पक्षा०काष्ठ-समूह ) का आलम्बनकर पैदा हुए तारारूपी छत्राकों में-से विकसित ( फैला ) हुआ एक छत्राक चन्द्रमाको मानती हूँ। [ बरसात तथा धूप लगनेसे लकड़ी में तारा-जैसे छोटे. छोटे छत्राक ( जिसे-बच्चे 'सांपका छत्ता' कहते हैं ) उत्पन्न होते हैं और वे कुछ समय के बाद विकसित होकर चन्द्रमा-जैसे गोलाकार हो जाते हैं, अत एव मैं उन्हीं तारारूप छोटेछोटे छत्राकोंमें-से विकसित छत्राकको चन्द्रमा मानती हूँ] // 96 // दिनावसाने तरणेरकस्मानिमजनाद्विश्वविलोचनानि | अस्य प्रसादादुडुपस्य नक्तं तमोविपद्वीपवतों तरन्ति / / 67 // -दिनेति / विश्वस्य जगतो विलोचनानि दिनावसाने तरणेः 'सूर्यस्याकस्मादसंभा. वितहेतोनिमज्जनात्प्रतीचीसागरनीरप्रवेशाद्धेतोनक्कं रात्रौ तमोनिमित्तां स्खलनादि. रूपां विपदमेव द्वीपवती महानदीमस्योडुपस्य चन्द्रस्य प्रकाशरूपाप्रसादात्तरन्ति / चन्द्रेण तमो निरस्य सर्व प्रकाशितमिति भावः। अन्येऽपि रात्रौ तरणेनौंकाया अकस्मान्मजनाद्धेतोबडनरूपामापनदीमुडपस्याकस्मादागतस्याल्पयानपात्रस्य प्र. सादात्तरन्ति // 17 // ___ संसारके नेत्र, सायङ्काल में सूर्य ( पक्षा०-नाव ) के सहसा डूब जानेसे रात्रिमें इस उडुप ( तारापति चन्द्रमा, पक्षा०-छोटी नाव ) के प्रसाद (चाँदनी, पक्षा०-कृपा) से अन्धकारके कारण स्खलन आदिरूप विपत्तिरूपा नदीको तैरते हैं। [ लोकमें भी कोई व्यक्ति सायङ्कालमें नावके सहसा डूब जानेपर छोटीनावकी कृपासे रात्रिमें नदीको पार करता है ] // 97 // . किं नाक्षिण नोऽपि क्षणिकोऽणुकोऽयं भानस्ति तेजोमयबिन्दुरिन्दुः / अत्रेस्तु नेत्रे घटते यदासीन्मासेन नाशी महतो महीयान् // 18 // किमिति / नोऽस्माकममहतां पामराणामपि अधिण नेत्रविषये तेजोमयस्तेजो. रूपो विन्दुरेवायमिन्दुरकुण्या नयनप्रान्तचिपिटीकरणे धवलवर्तुलाकारेण भान्

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