Book Title: Naishadh Mahakavyam Uttararddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 886
________________ द्वाविंशः सर्गः। 1583 बन्धिनि 'समुद्रज्येष्ठा-' इत्यादिश्रौतेऽभिषेकाख्ये उत्सवे महाभिषेकार्थ सहनसंख्या धारा लोहशलाकानिर्मितजलप्रवाहमार्गा यस्य स ताहशो यः कलशस्तस्य श्रीः, प्राप्ता सहस्रच्छिद्रगलजलधारकलशस्येव श्रीः शोभा येन सः / महोत्सवे हि सहस्त्र. धारेण सुवर्णकलशेन महाभिषेकः क्रियते / तथा च राहुदन्तकृतच्छिद्रपरम्परा. गलदमृतधारश्चन्द्रो गलजलधारसहस्रच्छिद्रसुवर्णकलश इव शोभमानः पूर्वोक्तवर्णन. योक्तविधत्वस्कृतपूजया च सुरतप्रवृत्तयोरावयोरुद्दीपकतया परमानन्दं कुर्यादिति भावः। एतेन तत्समयोचितरतिकामविवाहोत्सवाभिधानेन 'चन्द्रोऽस्तु नस्तुष्टये इत्यनेन च विलासिना नलेन स्वनिवर्त्यतृतीयपुरुषार्थपयोधिपीयूषरसास्वादनलाल. साभिव्यज्यते / 'सुधाधार-' इत्यपि पाठे-दीधितिसुधाया धारा यस्य सुधाया आधार इति वा / 'आनन्द' पदेन 'तुष्टयेऽस्तु' इत्याशिषा च ग्रन्थसमाप्तिं द्योतयति / महा. भारतादौ वर्णितस्याप्युत्तरनलचरित्रस्य नीरसस्वान्नायकानुदयवर्णनेन रसभङ्गसद्भा. वाच काव्यस्य च सहृदयालादनफलत्वाचात्रोत्तरचरित्रं श्रीहर्षेण न वर्णितमित्यादि ज्ञातव्यम् / न इति पक्षे 'अस्मदो द्वयोश्च' इति द्विस्वेऽपि बहुवचनम् // 148 // (हे प्रिये ! ) राहुके प्रत्येक वार निगलनेसे संलग्न (परस्परमें सम्मिलित ) होते हुए दन्त-समूह अर्थात् ऊपर नीचेकी दन्तपंक्तिदयरूप (छेद करनेके ) यन्त्रसे उत्पन्न हुए. छिद्रसमूहसे गिरता हुआ ( चन्द्रमाकी ) किरणरूपी अमृतरूपसार (श्रेष्ठमाग, या-आसारधारासे होनेवाली वृष्टि ) वाला, और कामदेव तथा रतिके विवाह .( सम्मिलन ) रूप आनन्दकारक अभिषे कोत्सबमें सहस्र-धाराओंसे युक्त कलसकी शोभाको प्राप्त शोतद्युति (चन्द्रमा) यह देव हमलोगों (चन्द्रस्तुति या चन्द्रपूजा करनेवाले हम सबों, या-हम दोनों) के परमानन्दके लिए होवे / [ स्त्री-पुरुष के विवाहके बाद सहस्र छिद्रयुक्त कळससे अभिषेक कराया जाता है, चन्द्रमा भो बार-बार ग्रहणकालमें राहुके दोनों दन्तपंक्तिरूप यन्त्रके गीचमें पकड़कर सहस्र छिद्रोंसे युक्त होकर अमृतस्राव करता हुआ उक्त अभिषेक-कलसके समान होता हुआ काम-मित्र होनेसे कामपूजन (या-कामस्तुति = उक्तरूप ( 22 / 39147 ) से कामवर्णन करनेवाले हमलोगोंके परमानन्दके लिए हो। यहां नलने तृतीय पुरुषार्थ 'काम' का प्रसङ्ग होनेसे उप्तोकी आशंसा की है। महाभारत आदि पुराणों में वर्णित नलका अवशिष्ट चरित दुःखप्रद एवं नीरस प्राय होनेसे महाकवि श्रीहर्षने शृङ्गारपूर्ण सरस नल चरितका वर्णन करने के बाद ही इस महाकाव्यको समाप्त करने के उद्देश्यसे प्रधान नायक नलके मुखसे 'आशीर्वादात्मक' होनेसे मङ्गलकारक आशंसा कराकर ग्रन्थको समाप्त किया है / अत एव कुछ समालोचकों का यह कथन ठीक नहीं है कि-'कविसम्राट् श्रीहर्षने आगे भी नलके चरितका वर्णन किया होगा' ] // 148 // श्रीहर्षे कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं / श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् /

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