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________________ १८८] [ श्री महावीर वचनामृत चाहिये और रहने के लिये स्त्री आदि के ससर्ग से रहित स्थान को पसन्द करना चाहिये । न वा लभेजा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा । एको वि पावाह विवज्जयंतो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ||४२|| [ उत्त० अ० ३२, गा० ५] यदि योग्य छान-बीन के बाद भी गुण मे अपने से अधिक या अपने जैसी ही कक्षावाला - योग्यतावाला निपुण साथी नही मिले तो वह सदा सर्वदा पापो का वर्जन करता हुआ और भोग के प्रति अनासक्त वृत्ति धारण कर अकेला ही विचरण करे । जे ममाइअमई जहाइ, से जहाइ ममाइअं । से हु दिट्टभए मुणी, जस्स नत्थि ममाइअं ॥४३॥ [ आचा० भ० २, उ०६ ] जो अपनी ममतावाली बुद्धि का त्याग कर सकता है, वही परिग्रह का त्याग कर सकता है। जिसके चित्त मे ममत्व नही है, वही ससार के भयस्थानो को भली-भांति देख सकता है । वत्थगंधमलंकारं इत्थिओ सयणाणि य । अच्छन्दा जे न भुंजंति, न से चाइति वच्च ||४४ || [ दश० अ० २, गा० २]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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