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भौतिक जीवन को समन सुख-सुविधाओ को ठुकराया। अन्तर्जीवन का विश्लेपण एवं मन्यन कर राग-द्वष की वैकारिक कालिमा को दूर हवाया और अन्तर मे शुद्ध, बुद्ध, निरजन, निर्विकार आत्म-सत्ता का नाक्षात्कार किया। __ भगवान महावीर की वाणी वह पतित-पावनी निर्मल धारा है, जिसमे निमज्जित होने से आत्मा अपने लोक-परलोक और लोकातीत तीनों प्रकार के जीवन को पावन एवं पवित्र कर लेता है। द्रव्य-गगा तन के ताप को कुछ क्षणो के लिए भले ही शान्त कर दे किन्तु उसमे मन के ताप को गीतल करने की क्षमता नही है। परन्तु भगवान की वाणी रूप निर्मलधारा मनुष्य के मनस्ताप को अखण्ड शान्ति और शीतलता प्रदान करती है।
जग-जीवन के परिताप और पीडा को दूर करने ले लिए भगवान महावीर ने अकार-त्रयो की दिव्य देशना दी थी-अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह । मन के वैरभाव को दूर करने के लिए अहिंसा, बुद्धि को जडता और आग्रह को मिटाने के लिए अनेकान्त तथा समाज और राष्ट्र की विषमता को दूर करने के लिए अपरिग्रह परम आवश्यक तत्त्व है । इस अकार-त्रयी में भगवान की समग्र वाणी का सार आ जाता है। शेष जो भी कुछ है, वह सब इसी का विस्तार है।
आगम-महासागर का मन्थन करके, उसमें से भगवान महावीर के दिव्य सन्देश रूप अमृत कण निकालना और उसे सर्वजन हिताय एवं सर्वजन सुखाय प्रस्तुत करना, आज के साहित्यकार का सबसे बड़ा कर्तव्य है। साहित्यकार का कर्तव्य है कि वह अपनी प्रतिभा और