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प्राककथन
[१] श्रमण भगवान महावीर कैवल्यावस्था प्राप्त होने के बाद तीस वर्ष तक असख्य जन-समुदाय को अपने विशिष्ट वचनामृत का पान कराते रहे । फलतः असख्य आत्माएं सदा-सर्वदा के लिए भवपाश से छूट गई । विशेष क्या ? यह महाप्रभु का वचन श्रवण करने के प्रताप से पशु-पक्षी भी अपनी आत्मा का उद्धार करने में समर्थ बने ।
विश्ववद्य भगवान महावीर के इस वचनामृत का सग्रह इनके पट्टशिष्य अर्थात् गणधर भगवन्तो ने आचाराग, सूयगडाग आदि सूत्रो के रूप मे व्यवस्थित किया और जैन शासन का चतुर्विध सघ आज तक गुणवन्त गीतार्थों के मुख से ये सूत्रो कोश्रवण कर आत्म-कल्याण की साधना मे रत रहा है।
प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादक शतावधानी पंडित श्री धीरज भाई ने भा भगवान् के इस वचनामृत को श्रमण-श्रेठो के मुख से कई बार सुन और श्रद्धापूर्ण भावना से अपने हृदय-मन्दिर मे स्थापित किए ऐसा मरा ख्याल है। फिर कई महानुभावो का ऐसा सुझाव रहा कि देवाघिदेव भगवान महावीर के वचनामृत के इस अनमोल सग्रह को यदि सुव्यवस्थित ढंग से गुजराती, हिन्दी, एव अग्रेजी भाषा मे सरल-स्पष्ट