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अंतिम अवसर का लाभ उठा ले, वह प्रत्यक्ष मोक्ष में जाएगा वेग से। फिर हज़ारो वर्षों तक भी ठिकाना नहीं पड़ेगा! ___आयुष्य में परिवर्तन किसीसे भी नहीं हो सकता। फिर भले ही वे संत हों, महात्मा हों, ज्ञानी हों या तीर्थंकर हों।
मृत्यु के समय जिसका समाधिमरण होता है, उसे देह की पीड़ा परेशान ही नहीं करती। अंतिम घंटा संपूर्ण समाधि में जाता है और जिन्हें अक्रम ज्ञान मिला हो उन सबको ही अंत समय में तो दादा प्रत्यक्ष दिखते हैं या फिर 'मैं शुद्धात्मा हूँ', सिर्फ वही लक्ष्य में रहता है, देह अलग ही लगता है, जो मरता है वह अलग ही लगता है। मरते समय पूरी ज़िन्दगी का लेखाजोखा आ जाता है।
सिद्ध भगवंत सिद्धक्षेत्र में ही होते हैं, केवळज्ञान-स्वरूप ही होते हैं। निरंतर परम सुख में होते हैं और पूरे ब्रह्मांड को प्रकाशित करते हैं।
'शुद्धात्मा को देखना' अर्थात् क्या? इन आँखों से वे नहीं दिखते। जैसे एक डिब्बी में कीमती हीरा बंद करके रख दिया हो, वह फिर खयाल में ही रहता है कि 'इसमें हीरा है और ऐसा है' वगैरह, वगैरह.. वैसे ही ज्ञान मिलने के बाद मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार सभी एक्सेप्ट करते हैं कि 'मैं शुद्धात्मा ही हूँ और सभी में शुद्धात्मा ही है।' फिर शंका नहीं होती!
ज्ञानी की आराधना करें तो शुद्धात्मा की आराधना करने के बराबर है और वही परमात्मा की आराधना है और वही मोक्ष का कारण है।
आत्मसुख की अनुभूति क्या है? किस तरह उसका पता चलता है? आत्मसुख का लक्षण अर्थात् निरंतर निराकुलता रहती है। आकुलताव्याकुलता हुई तो उपयोग चूक गए, ऐसा समझना। शाता (सुख-परिणाम) वेदनीय या अशाता (दुःख-परिणाम) वेदनीय, दोनों को जाने वह आत्मअनुभव।
शारीरिक दुःख किसे होता है? आत्मा को नहीं, देह को होता है। वह भी 'व्यवस्थित' है। जब वेदना हो, तब हम 'चंदूभाई' से कह दें, ऐसे
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