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अक्रम विज्ञान में सारी ही छूट देते हैं। कर्म नहीं बंधेगे कहीं भी, उसकी दादा गारन्टी देते हैं, मात्र एक ही भयस्थान बताते हैं, अणहक्क (बिना हक़ का) के विषयों का।
द्वेष और अभाव में बहुत फर्क है। अभाव अर्थात् डिस्लाइक, वह मानसिक होता है। वह तो ज्ञानी को भी होता है, लाइक एन्ड डिस्लाइक।
और द्वेष, वह अहंकारी वस्तु है! अभाव, वे तो अभिप्राय किए हुए हैं, उनके फलस्वरूप रहते हैं। उनके प्रतिक्रमण करने पड़ेंगे, तब जाएँगे।
मन को दबाना नहीं होता है। उसे समझा-बुझाकर शांत करना होता है। संयमी को यमराज भी वश में रहते हैं, यानी कि मृत्यु का भी उसे भय नहीं रहता!
याद आया वह परिग्रह। स्वरूप से दूर करे वह परिग्रह।
अक्रमविज्ञान से स्वरूप की प्राप्ति होती है, जो क्रोध-मान-मायालोभ को खत्म कर देती है! व्यवहार शुद्ध बनता है और पूरा वर्ल्ड आश्चर्यचकित हो जाता है, उस व्यवहार को देखकर! परम पूज्य दादाश्री का ऐसा ही व्यवहार देखने को मिलता है। उसे देखकर ही हमें ऐसा सीखने को मिलता है।
परम विनय तो ज्ञान मिलते ही अपने आप उत्पन्न हो जाता है ! परम विनय से मोक्ष है, क्रियाओं से नहीं। मंदिरों में विनय है। ज्ञानी के पास परम विनय उत्पन्न होता है। जो संसार में अभ्युदय और मोक्ष के लिए आनुषंगिक, दोनों फल देता है!
जिनका विनय करो, उनकी निंदा नहीं करते।
ज्ञानी भाव को ही देखते हैं, क्रिया को नहीं। किसीने किसीको मार डाला, तो वह प्रकृति करती है, हिसाब है, 'व्यवस्थित' है वगैरह-वगैरह ज्ञान के अवलंबन फर्स्ट स्टेज के हैं, और अंतिम स्टेज में तो, मूल स्वभाव में तो, वह मरता ही नहीं, नाशवंत चीज़ों का नाश होता ही रहता है। इसलिए जगत् निर्दोष है। मारता है वह भी