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[ट ] रास्तों पर चली और ठोकरें खाकर आखिर उसी मार्ग की ओर आ रही है, जिसका निर्देश भगवान् । महावीर ने किया था । व्यक्ति और समाज की सुख-शान्ति एवं समृद्धि का दूसरा कोई मार्ग ही नहीं है ! अतएव जब तक मनुष्य जाति है और उसमें सुख-शान्ति की चाह है, तब तक भगवान् महावीर की वाणी की उपादेयता अक्षुण्ण रहेगी।
भगवान महावीर ने जो उपदेश दिया, उसका अधिकांश भाग श्रुत के रूप में निबद्ध नहीं हो सका। जो थोड़ा भाग श्रुतनिबद्ध हुआ, वह सब भी लिपिबद्ध नहीं हो सका। उसका अधिकांश भाग विच्छिन्न हो चुका है और थोड़ा-सा अंश ही हमें उपलब्ध है। आज जितना भी अंश हमें उपलब्ध है, उसकी रक्षा अनेक प्रकार के कष्ट सहन करके, अपने प्राणों को भी संकट में डालकर प्राचीन काल के आचार्यों ने की है। यही नहीं, बल्कि उस मूल-भागम का आधार लेकर उसे पल्लवित भी किया है। देश और काल के अनुसार उसे नाना रूपों में और नाना भाषाओं में परिणत भी किया है। हम उनके अत्यन्त ऋणी हैं।
भगवान महावीर का उपदेश मूलतः द्वादशांगी अर्थात् बारह अंगों में विभक्त किया गया था। वह अङ्ग इस प्रकार हैं
(१) प्राचाराङ्ग (२) सूत्रकृतांग ( ३ ) स्थानांग (४) समवायांग (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति (६) ज्ञातृ-धर्मकथांग (७) उपासकदशांग (८) अन्तकृदशांग (६) अनुत्तरौपपातिक (१०) प्रश्नव्याकरण (११) विपाकअध्ययन और (१२) दृष्टिवाद ।
यह पहले ही बतलाया जा चुका है कि इन बारह अंगों के अतिरिक्त भी उपांग आदि २ नामों से श्रागमसाहित्य है, जिसका यहाँ नामोल्लेख नहीं किया जा रहा है । मगर उस समस्त-साहित्य का मूल यही बारह अंग है । द्वादशांगी या बारह अङ्गों का दूसरा नाम 'गणिपिटक' भी है ।
___ इस्लामधर्म के अनुयायियों का कथन है कि उनका आगम-कुरान-ईश्वर का भेजा हुआ है। ईश्वर ने मुहम्मद साहब के पास भेजा और फिर मुहम्मद साहब ने उसे दुनिया में फैलाया। कुछ वैदिक धर्म के अनुयायियों की मान्यता है कि वेद कभी किसी ने बनाया ही नहीं है । वह अपौरुषेय है। अनादिकाल से चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चला जायगा। इस प्रकार वे अपने मान्य अागम की प्रामारिणकता सिद्ध करने के लिए लोकोत्तर चमत्कार उसके साथ जोड़ते हैं। मगर जैनों ने अपने पागम के साथ ऐसे किसी चमत्कार को नहीं जोड़ा है। उनका मन्तव्य सीधा-सादा और स्वाभाविक है । जो पुरुष परिपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेता है और मोह आदि आत्मिक विकारों पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह 'अरिहन्त' कहलाता है। अरिहन्त प्राप्त हैं और प्राप्त पुरुष के वचन सदा समीचीन और अभ्रान्त ही होंगे । मोह
और अज्ञान ही असत्यभाषण के कारण हैं । जिस पुरुष में यह दो कारण न होंगे, उसकी वाणी सत्य ही होगी। अतः अरिहन्त भगवान के वचन आगम हैं। स्वामी समन्तभद्र ने कहा है:
प्राप्तोपशमनुल्लंध्यमदृष्टेष्टविरोधकम् ।
तत्वोपदेशकृत् सा शास्त्रं कापथघट्टनम्॥ अर्थात्-शास्त्र वही है जो प्राप्त का कथन हो, तर्क या युक्ति से जिसका उल्लंघन न हो सकता हो, जो प्रत्यक्ष या अनुमान प्रमाण से विरुद्द न हो, तत्व का उपदेशक हो, प्राणीमात्र का हित करने वाला हो और कुमार्ग का नाशक हो।
___ शास्त्र की यह परिभाषा कितनी व्यापक, स्वाभाविक और सत्य है ! इसमें न किसी अविश्वसनीय चमत्कार को स्थान दिया गया है और न किसी प्रकार के मताग्रह को ही । वास्तव में किसी भी आगम
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