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[ब] जितनी जैनविचारधारा प्राचीन है। अतएव उन सब विचारधाराओं का मूल स्रोत जैनविचारधारा ही प्रतीत होती है। यद्यपि यह तथ्य इतिहास से सिद्ध किया जा सकता है, पर यहाँ हमें उस पर विचार नहीं करना है। हमारा आशय इतना ही है कि जैनसाहित्य एक मौलिक विचारधारा का वाहक है और उसका श्रादि-स्रोत है।
विचारधारा की मौलिकता क्या है ? यह प्रश्न गंभीर है और इसका उत्तर संक्षेप में पूरी तरह - नहीं दिया जा सकता। जैन-विचारधारा विचार-जगत् में और व्यवहार-जगत् में एक अपूर्व प्रकाश
डालने वाली है । क्षेत्र और काल की परिधियों से पर जो परम और चरम सत्य है, जो शाश्वत और सम्पूर्ण । है, उसी सत्य की ओर वह संकेत करती है। वह हमें विकल से सकल की ओर ले चलती है और खण्डित ' सत्यांशों को अखण्डित सत्य समझ लेने के भ्रम का निर्मूलन करती हुई परिपूर्ण सत्य की ओर बढ़ने को - प्रेरित करती है।
असीम के संबंध में हम बहुधा भ्रम में रहते हैं। साधारण प्राणी अपनी अनादिकाल से अनन्त काल तक निरन्तर बहने वाली जीवनधारा को न समझ कर वर्तमान जीवन तक ही उसे सीमित मान लेता है। इसी प्रकार दार्शनिक अकसर वस्तु के कुछ अंशो को ही समग्र वस्तु मान लेता है। विचारजगत् में जेनविचारधारा ने ही इस भ्रम का निराकरण करने का प्रयत्न किया है। ... व्यवहारजगत् को भी उसकी देन अनुपम है । संयम, तप, त्याग, अहिंसा आदि की दिव्य भावनाएँ
जैनविचारधारा का अनुपम उपहार हैं, जो उसने जगत् को प्रदान किया है । यद्यपि आज यह भावनाएँ सर्वमान्य-सी हो गई हैं तथापि इससे जैनविचारधारा की मौलिकता में कोई अन्तर नहीं आता। इससे तो उसकी असाधारण विजय का ही अनुमान किया जा सकता है।
पहले-पहल यह विचारधारा 'अति' या 'श्रुत' के रूप में ही प्रवाहित होती रही। उस समय के - मनीषी बड़े मेधावी और स्मरणशक्ति-सम्पन्न थे और संभवतः लिखने की पद्धति चालू नहीं हुई थी।
मगर जब लोगों की स्मरणशक्ति और मेधाशक्ति का ह्रास हुआ तो आवश्यकता के अनुसार उस विचारधारा ने साहित्य का रूप ग्रहण किया। आज हमारे सामने जो जैनसाहित्य है, उसमें श्रमण भगवान् महावीर के उपदेशों का ही सार है।
भगवान महावीर अपने युग के असाधारण महापुरुष थे। महापुरुषों की वाणी की विशेषता यह है कि वह साधनाप्रसूत होती है। पहले-पहल वे अपने जीवन को साधना में लगा देते हैं। साधना के इस काल में वे अपनी इन्द्रियों और अन्तःकरण पर विजय प्राप्त करने का अभ्यास करते हैं और फलस्वरूप जितेन्द्रिय तथा निर्विकार हो जाते हैं। पूर्ण जितेन्द्रिय और निर्विकार अवस्था को हम 'वीतरागदशा' कहते हैं । वीतरागदशा प्राप्त होने पर ज्ञान भी निर्विकार और परिपूर्ण हो जाता है। इसके अनन्तर ही महापुरुष अपने धर्मचक्र का प्रवर्तन करते हैं-अपनी वाणी द्वारा जगत् का अज्ञान दूर करते हैं। भगवान महावीर ने भी इसी क्रम का अवलम्बन किया था। उनकी साधना बड़ी उग्र और कठोर थी। इतिहास में ढूँढने पर भी उसकी समता कहीं दिखाई नहीं देती । इस उग्र साधना के परिणाम स्वरूप उन्होंने सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया और उसके बाद ही धर्म-वाणी का उच्चारण किया । दीर्घ कालीन प्रयोगों, अनुभवों और अनुपम साधना के पश्चात् जो वाणी प्रस्फुटित हुई है, वह जगत् के लिए कितनी उपादेय, हितावह और आवश्यक होगी, यह कहने की आवश्यकता नहीं। लम्बी-लम्बी पच्चीस शताब्दियाँ व्यतीत हो जाने पर भी महावीर की वाणी आज भी नूतन है और चिरनूतन ही बनी रहेगी। दुनिया आढ़े-टेढ़े
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