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दिल्ली के मुस्लिम शासकों की आँख हरदम जालोर पर लगी रही थी । उन लोगों ने कई बार आक्रमण भी किए। संवत् १३४८ में फिरोज खिलजी ने जालौर राज्य पर आक्रमण किया और वह सांचोर तक पहुँच गया था पर गुजरात के सारंगदेव वाघेला ने चौहानों की सहायता की और मुस्लिम सेना को खदेड़ दिया [ विविध तीर्थ-कल्प ] सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने तो वर्षों तक जालोर को हस्तगत करने के लिए संघर्ष किया था । जिसका विशद वर्णन कान्हड़दे प्रबन्ध में पाया जाता है जो आगे लिखा जायगा परन्तु उसके पहले भी जब उदयसिंह राज्य करता था तब सं० १३१० वसन्त पंचमी के दिन सुलतान जलालुद्दीन ने जालोर पर घेरा डाला था । उस समय राउल ने सुलह करने के लिए बापड़ राजपूत को नियुक्त किया था । ने छत्तीस लाख द्रम्म सुलतान दण्ड स्वरूप मांगे । उसने कहा मैं द्रम्म नहीं जानता 'पारुत्थक' दे दूंगा । निकटस्थ व्यक्ति ने कहा देव ! आप स्वीकार करलें, एक पारुत्थक के आठ द्रम्म होते हैं, सुलतान ने मान लिया । पुरातन प्रबन्ध संग्रह पृ० ५१ में ऐसा उल्लेख है । उस समय तो जालोर बच गया किन्तु अलाउद्दीन ने चितौड़, रणथंभौर, देवगिरि की भाँति जालोर पर अधिकार करने की सफलता प्राप्त करली और अन्त में दुर्भाग्यवश कान्हड़देव - वीरमदेव पिता-पुत्र दहियों के छल से मारे गए और जालोर पर कान्हड़दे प्रबन्धानुसार सं० १३६८ में शाही अधिकार हो गया । पर खरतरगच्छ - युग प्रधानाचार्य गुर्वावली में सं० १३७१ में म्लेच्छों द्वारा जालोर भंग होने का विश्वसनीय उल्लेख है । शाही अधिकार होने के पश्चात् भी अलाउद्दीन ने सन् १३१४ में चित्तौड़ का अधिकार जालोर के सोनिगरा मालदेव को सौंपा था अतः जालोर, के शासक भी ७ मालदेव ८ बनवीरदेव और ९ रणवीरदेव चौहानों के नाम मिलते हैं। चौहानों के पश्चात् जालोर पर विहारी पठानों का अधिकार हो गया । राजस्थान के इतिहास क्रम में लिखा है। कि इ० सन् १३९२ में वीसलदेव चौहान की विधवा रानी पोपां बाई को हटाकर उसके दीवान विहारी पठान खुर्रमखांने अधिकार किया । सन् १३९४ में गुजरात के सुल्तान से उसे सनद मिली विहारी पठानों में १ खुर्रमखान, २ युसुफ खान ३ हसनखान, ४ सालारखान ५ उस्मानखान, ६ बुढनखान, ७ मुजाहिदखान ने राज्य किया । उसका निःसन्तान देहान्त हो जाने से गुजरात के बादशाह के भेजे हुए अमीर जीवाखान - बभुखान के नेतृत्व में सन् १५१० से १५१३ तक जालोर रहा, फिर बिहारी पठानों को सौंप दिया गया । विहारी पठानों में ८ अलीशेरखान ९ सिकन्दर खान १० गजनीखान ( प्रथम ), ११ सिकन्दरखान (द्वितीय) हुए । इसके बाद सन् १५३५ से सन् १५५३ तक अर्थात् १८ वर्ष तक बिहारियों के हाथ से निकलकर बलोच और राठोड़ों के
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