Book Title: Swarnagiri Jalor
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Prakrit Bharati Acadmy

View full book text
Previous | Next

Page 104
________________ प्राचीन तीर्थमालाओं में स्वर्णगिरि . जालोर प्राचीन तीर्थमालाओं में सहस्राब्दि से स्वर्णगिरि-कनकगिरि-स्वर्णशैल आदि अनेक पर्यायवाची नामों से इस महातीर्थ को नमस्कार किया गया है। खरतरगच्छ में प्रातःकालीन प्रतिक्रमण में बोले जाने वाले “सद्भक्तया" संज्ञक सकल तीर्थनमस्कार में 'कनकगिरौ' और 'स्वर्णशैले' नाम दो वार आये हैं जिनमें से एक नाम इसी स्वर्णगिरि को उद्देश्य कर लिखा है। स्वर्णशैल नाम निम्न पद्य में है श्री शैले विन्ध्यभृगे विमलगिरिवरेह्यर्बुदे पावके वा सम्मेते तारके वा कुलगिरि शिखरेऽष्टापदे स्वर्णशैले सह्याद्री चोज्जयन्ते विपुल गिरिवरे गूर्जरे रोहणाद्रौ श्री मत्तीर्थकराणां प्रति दिवसमहं तत्र चैत्यानि वन्दे ॥३॥ 'सकलार्हत्' स्तोत्र के अन्तिम पद्य में जो प्रसिद्ध गिरि तीर्थ बतलाए हैं उनमें सुवर्णगिरि का कनकाचल नाम से उल्लेख किया गया है। यतः "ख्यातोऽष्टापद पर्वतो गजपदः सम्मेत शैलाभिधः श्रीमान् रक्तकः प्रसिद्ध महिमा शत्रुञ्जयो मण्डपः वैभारः कनकाचलोऽबुईगिरिः श्री चित्रकूटादय स्तन श्री ऋषभादयो जिनवराः कुर्वन्तु वोमङ्गलन् ॥" अब तेरहवीं शती के जैनाचार्य श्री महेन्द्रप्रभसूरि कृत तीर्थमाला वृत्ति का महत्त्वपूर्ण विराट उल्लेख देखिए बहुविह अच्छरिय निही रहोअ पडहोअ पयड़ सादिव्यो। बलभिच्चगाइ दुन्निवि जालउरे वीरजिण भवणे ॥८६॥ नवनवह लक्ख धणवइ अलखुवासे सुवण्णगिरिसिहरे । नाहड़ निव कालोणं थुणि वीरं अक्खवसहीए ॥७॥ [ ७९

Loading...

Page Navigation
1 ... 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134