Book Title: Swarnagiri Jalor
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Prakrit Bharati Acadmy

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Page 87
________________ तीर्थङ्कर प्रासाद में सर्वथा अनुचित और वास्तु शास्त्र से निषिद्ध है। इसी तरह भीतरी गृह के प्रवेश द्वार पर सिंहों का यह तोरण देवता की विशेष पूजा का विनाश करने वाले हैं। तथा पूर्वज पुरुषों की मूत्तियों से युक्त हाथियों के सन्मुख प्रासाद का होना बनाने वाले के भविष्य के विनाश का सूचक होता है। इस विज्ञ कारीगर के हाथ से भी जो इस प्रकार के अप्रतिकार्य ये तीन दोष हो गए, ये भावी कर्म का दोष है। ऐसा निर्णय करके वह जैसे आया था, वैसे ही चला गया। उसकी स्तुति के ये श्लोक हैं- ' २२० हे यशोवीर, यह जो चन्द्रमा है वह तुम्हारे यश की रक्षा के लिए (किसी की नजर न लग जाय इस लिए ) किया गया रक्षा (राख) का 'श्री' कार है। २२१ हे यशोवीर, शून्य जिसके मध्य में है ऐसे ये बिन्दु यों तो निरर्थक ही हैं पर तुम रूप एक ( अंक ) के साथ हो जाने से ये संख्यावान बन जाते हैं । २२२ हे यशोवीर, जब विधाता ने चन्द्रमा में तुम्हारा नाम लिखना प्रारंभ किया तो उसके पहले के दो अक्षर ( यशः ) ही भुवन में न समा सके । [१६३] यशोवीर के निकट न कोई [ कवि ] माघ की प्रशंसा करता है न कोई अभिनंद का अभिनंदन करता है, और कालिदास भी उसके पास कलाहीन (निस्तेज ) मालूम देता है। [१६४] यशोवीर मंत्री ने सज्जनों के साक्षात् ( सन्मुख ), मुख में रही दाँतों की ज्योति के बहाने ब्राह्मी ( सरस्वती) को और हाथ में रही हुई सोने की मुद्रा के बहाने श्री ( लक्ष्मी ) को प्रकाशित किया। [१६५] इस चौहान नरेन्द्र के मंत्री ने वैसे गुण अर्जन किए जिनसे ब्रह्मा और समुद्र की पुत्रियों ( सरस्वती और लक्ष्मी ) को भी नियन्त्रित कर दिया। [१६६] जहाँ लक्ष्मी है वहाँ सरस्वती नहीं है, जहाँ ये दोनों हैं वहाँ विनय नहीं है। पर हे यशोवीर, यह बड़ा आश्चर्य है कि तुम में ये तीनों विद्यमान हैं। [१६७] वस्तुपाल और यशोवीर ये दोनों सचमुच ही वाग्देवता (सरस्वती) के पुत्र हैं, नहीं तो फिर इन दोनों का दान करने में एक ही जैसा स्वभाव कैसे होता? ६२ ]

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